Sunday, August 24, 2014

बस अकारण ही

रोज़ सुनते हैं
मंदिर की घंटियाँ
गिरजाघरों के शब्द
मस्जिदों से अजान
गुरुद्वारों के पाठ
और भी कई आवाज़ें
कल्याण की ख़ातिर
संसार भर के
बग़ैर अपवाद के
लेकिन धर्म के दम्भ
आँखों को बनाती हैं
हर तरफ़ पारान्ध
धर्म तब द्योतक हैं
निहित स्वार्थ के
निश्चित विवाद के
सम्मोह की मूर्खता के
कल्याण के मायने
सिमट जाते हैं
संकीर्ण मानसिकता
हावी हो जाती है
प्रतिस्पर्धात्मक जगत की
विनाश की कड़ी बनती है
एक निरंतर प्रतिद्वंदिता
बस अकारण ही

Saturday, August 23, 2014

My Moon

I'm not the only one
Like everyone else
I too wanted the Moon
For having observed
Moon emitting lights
In phases all different
Yet with clear pattern
Brightening dark nights
Of each one and sundry
Closest to us in galaxy
Near our own vision
As I grew with the time
Desires became unlimited
Some multidimensional
And multifarious too
No longer I want Moon
Yet the imprints remain
Looking for and expecting
More on a New Moon day
And willing to question
Give me my Moon!



जीते-जीते

भान है मुझे भी
हैं बाधाएं बड़ी
मेरे भी पथ में
सजग इन बातों से
किन्तु, बढ़ता हूँ मैं
अपनी ही लय है
जीवन की गति में
ज्यों चाहे देखो
प्रतिपल, प्रतिक्षण
नूतन में भी है
बसा हुआ प्राचीन
कितने आकर चले गए
मैं भी जीकर जाऊँगा
कुछ भेद यहाँ पाउँगा
कुछ अनजाना रह जाऊंगा
हर लय के संघर्ष में पर
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
मैं जीते-जीते ही जाऊँगा

Anachronism

Truth whatever be
Not seldom but often
I find myself in middle
Of things and systems
Just sandwiched between
Traditional and modern
Generations new or old
The ethos and thoughts
Amidst reality or myths
Varieties,kinds so many
Questioning the faiths
People express opinions
Whatever way interpret
Sure like an example of
Exhibiting all my ways
As branded anachronism!

उत्साह

मेरे ही मन में तुम बस कर
मुझको उदास कर जाते हो
तुम क्यों हो इतने चंचल
पल में दूर, पास आ जाते हो
भाव समझता था ये मेरे हैं
पर तुम इन पर छा जाते हो
मेरे गीतों के बोलों में भी
तुम यहाँ-वहाँ दिख जाते हो
मेरी यूँ सीमारेखा तय कर
तुम अपना हास बढ़ाते हो
विरह,राग,क्रोध के पल बन
मेरे तन-मन में छा जाते हो
फिर भी तुमको मालूम नहीं
मन आनंदित कर जाते हो
उल्लास भरे पल याद दिला
अब भी उत्साह बढ़ा जाते हो

Thursday, August 21, 2014

अविश्वास

न जाने कैसे यहाँ
कभी-कभी क्या
अक्सर आ जाते
चंद ख़यालात
बस अनायास
और कभी
कुछ नहीं सूझता
हज़ार सोचने पर भी
और सप्रयास
लेकिन शायद
दोनों ही हालत में
बवंडर सा मचता
अंतर्मन में
बढ़ा देता है
स्वयं पर मेरा
अविश्वास


'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है- नीरज

'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है,
यह सृष्‍टि चराचर केवल छाया है, भ्रम है?
है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीवन?
यह नाम, रूप-सौंदर्य अविद्या है, तम है?

मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती को
जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती है,
मैं कैसे कह दूँ मिथ्‍या है संपूर्ण सृष्टि
हर एक कली जब मुझे देख शरमाती है?

जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझूँ
जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता है,
कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफल
जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है।

वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जानो
मुझको भी इस मिट्‍टी का कण-कण प्यारा है,
है प्यार मुझे जग से, जीवन के क्षण-क्षण से
तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!

मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों में
सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता है,
बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुबन
कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!

निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फसल
जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती है,
तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता है
औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!

तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसंत
तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल पराग
तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का
'अक्षर' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहाग

बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में
जब मेरे मन का सूनापन खो जाता है,
संगीत दिखाई देता है साकार मुझे
तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है।

जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ़
थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्टि
तब वायु कान में चुपसे कह जाती है,
'रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्टि'

कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदियाँ
है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पायल,
फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहें
तब लगता सच एकाँत नहीं, सच है हलचल।

अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊपर
जब करता है पपीहा अपने 'पी' का प्रकाश
तब सच मानो मालूम यही होता मुझको
गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !

जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुबह
निज गायन से करते मुखरित उपवन-कानन
सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझको
तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण।

पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आकर
जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगार
तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तरह
प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार।

जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले।
प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम नाम
तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई-
देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम।

अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई
जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्षर
तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपास
सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्वर

मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ पर
भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजार,
तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वयं
है खोज रहा धरती पर मिट्‍टी की मजार।

यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है-
वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जाना?
जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन में
जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना।

भाई! यह दर्शन संत महंतों का है बस
तुम दुनिया वाले हो, दुनिया से प्यार करो,
जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा है
उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !

यह बात कही जिसने उसको मालूम न था
वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्वर
होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव की
औ' ज्ञान ब्रह्म को नहीं, मनुज को देगा स्वर। - नीरज


बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी- नीरज

बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा
मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता न कर लिया गर पतझर से
आँगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बाँसुरी में स्वर फूँको तो
पपीहा दरवाजे गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो ऋतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दु:ख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो
शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

Wednesday, August 20, 2014

Nuances

Getting along the life
Is sure so intoxicating
Lost around the rhythms
Of living and livelihood
People each one different
Telling their own stories
In their own unique ways
Events and experiences
The milestones achieved
Of success and failures
Keeping track of memories
Incidents and happiness
Love with self and others
Record of the trajectory
The weird privy moments
Snubs and appreciations
Numerous ways to look at
The nuances of very life


Saturday, August 16, 2014

आशावान

फिर सोच लो तुम
ये क्या कहते हो
मैंने कहा था तुमसे
क्राँति बस भ्रान्ति है
तुम नहीं मानोगे
फिर भी कहता हूँ
बदल दो अन्दाज़
मुझे डर लगता है
कल बदल जाओगे
शायद तुम भी कहीं
भरोसा तोड़ोगे मेरा
मैं मान चुका हूँ
यथास्थिति की बात
भ्रांति में ही जी लूँगा
ये भी सोचता हूँ
कोशिश करोगे तुम
इसलिए मौक़ा दूँगा
मेरे ज़ज्बात बदलो
आशावान भी रहूँगा

Friday, August 15, 2014

Between Two Events

All haunting question around
Seldom are available answers
Wondering thoughts clueless
About the life and living both
Existence throwing questions
In this our amorphous World
Karma, Krishna of course
Are two great phenomenon
Sure linked to one another
Woven in myths and reality
Most people here live with
Preposterous expectations
Albeit it has the other side
Being life’s adrenaline too
Yes, to keep and get going
Living life with a purpose
Anyways that is a bit hazy
Philosophically as they say
Living life is just one thing
With sheer purpose to live
Just between two events

Far Away

Lost in mortal times
Far away from all here
He migrated one day
Yet lives in our hearts
Days in and days out
For reasons of deeds
And affection given
The arguments apart
Lived for others sake
Without expectations
Treating self selfless
Complaining to none
On his plight around
With full of admiration
To one and everyone
An untold sainthood
Unrecognized good
He did for everyone

दूसरों की आज़ादी

बड़े मायने रखती है
आज़ादी मेरे लिए भी
मैं बहस करता नहीं
कि किसको मिली है
असली आज़ादी यहाँ
मेरा यह मानना है
कमोवेश जो भी हो
सब ने पाई आज़ादी
लेकिन दरअसल
हम सभी विचार करें
मुद्दा बस इतना है
सम्मान करते हैं
हम कितना यहाँ
दूसरों की आज़ादी का!

Thursday, August 14, 2014

दस्तूर

समय ने सब बदल दिया
हर बात बस उलट चली है
अब कोई पुकारता नहीं है
बस आहटों में हम जी रहे हैं
चाहत अब नहीं मचलती
मोहब्बत का असर कम है
बस यूँ उदास बैठे रहते हैं
तमन्ना सब गुमशुदा सी हैं
दोस्ती, रहनुमाई लापता हैं
हर कोई खुद की फ़िक्र में है
ज़िन्दगी रँग बदलती नहीं
ज़िंदादिली बेरंग है अब यहाँ
रौशनी धूमिल हो चली है
वक़्त का सूरज ढल रहा है
ज़िन्दगी अब हम जीते नहीं
बस दस्तूर हम निभा रहे हैं


Saturday, August 9, 2014

अपनी-अपनी

कहते हैं लोग हमसे
सैकड़ों फ़िदा हो गए
लाखो लोग बैठे हैं
इंतज़ार में बारी के
सभी अपनी-अपनी
तैयार क़ुर्बानी को
उसके रसूख़ के लिए
मौक़े की तलाश में
उसकी हर अदा पर
फ़ना होने की क़सम
करोड़ों ने खाई हैं
लेकिन हक़ीक़त में
नज़र कोई आया नहीं
हमको कोई ऐसा
जो फ़ितरत रखता हो
मुल्क़ के काम आने की
होड़ लगी हुई है यहाँ
चाहत में सभी को
अपनी-अपनी इधर
रोटियाँ सेंकने की

Friday, August 1, 2014

बस अप्रयास

शब्दों में नहीं
हकीकत में
नहीं दीखता
कोई मेरे पास
पर अक्सर
अनायास ही
अपने आप ही
संभलता मन
दिलासा देता है
न जाने क्यों
करवट बदल
बस अप्रयास
होने लगता है
मुझे एहसास
तेरे होने का
यूँ मेरे पास

Welcome My Thoughts

Like a breeze in the summer
Amidst my vacillating mind
Welcome all my thoughts
They may not matter much
To me or anyone around
But are always dear to me
Caressing soul matters
Buttressing my existence
In those fragile moments
That unending stream
Of confusions so many
Like a crossroad makes
Anyone stress in reasons
Having to go somewhere
In this small yet vast World
My thought have brought me
Always the solace here
Arguing with own arguments
Welcome my dear thoughts