Wednesday, October 29, 2014

रिश्ते बिना डोर के

हो जाता हूँ कभी
भ्रमित सा मैं
बदलते परिवेश में
अब लोग यहाँ
नूतनपंथी हैं प्रायः
गाँव के गंवारों से दूर
शहर के संभ्रांत हैं
लोग बस लोग हैं
रिश्तों की डोर
नहीं पकड़ना चाहते
इनके रिश्ते अब
बिना डोर के होते हैं
वाई-फाई की भाँति
दूर से जुड़े हुए से
वो भी मर्ज़ी से ही
चाहा तो ऑन किया
वरना ऑफ़ लाइन
मशीनी युग है
मशीन की तरह हैं
इनके सभी अंदाज़

Monday, October 27, 2014

ऐसी नादानियाँ

न जाने क्यों
खूबसूरत बना कर
दिखा देता है
जलते से रँग
बादलों के
दिखने लगता है
जानदार से
हवाओं के कहर से
बिखरते हुए
बादलों को भी
जाने क्या सोच
ये सब दिखलाकर
करने लगता है
आसमान भी
ऐसी नादानियाँ
कभी-कभी

Sunday, October 26, 2014

मसखरा

कितनी आसानी से कह दिया
दिल का मामला है कभी कभी
बड़े तंज़ भी क्या अदा से कहे
दोधारी तलवार से लगते कभी
जो भी हो बात मोहब्बत की है
जानकर अनजान होते हैं सभी
बस हँसी है कि रूकती नहीं है
बड़ा ही मसखरा है ये दिल भी
समझना समझाना सब छोड़
खुद ही लगता है हँसाने कभी
रात की दिन से करता चुगली
दिन भर सोता है कभी कभी

Sunday, October 19, 2014

ऐसा ही रहूँगा

बहुत कुछ मिला
लेकिन फिर भी
वो नहीं मिला
जो चाहा मैंने
अभिलाषायें मेरी
असीम थीं
हरेक की तरह
कुछ आधी-अधूरी
और शेष अपूंर्ण
शायद रह गईं
मरीचिका बन
मुझे चाहिये था
थोड़ा सा प्यार
कुछ अपनापन
और कुछ सुक़ून
कोताही नहीं की
मेरी दृष्टि में
मैंने अपनी ओर से
शिक़ायत फिर भी
कोई नहीं मुझे
आशावान था
ऐसा ही रहूँगा


Friday, October 17, 2014

Momentary Yet Long

On a cold and silent moment
Breeze whispers in your ears
With a feeling of chill around
Hear the murmurs of your heart
Listen to the feelings of mind
Get more spark and park yourself
In the romantic world of thoughts
Cold may sound warm and cosy
Nature mingles with your nature
Synchronization of surroundings
With one's body, mind and soul
The hope amidst the nothingness
And the very self reassurances
Illumination of the inner lights
Feeling divine yet experiences
Of the ordinary, earthly beings
The wandering of the thoughts
Momentary yet that long lasts!

Thursday, October 16, 2014

पलायन की टीस

पहले सब कुछ था
यहाँ लोगों के पास
उनके आस-पास
हर वयस के लोग
एक जीवन्त क्रम
अब लोग बस गए
यहाँ से दूर कहीं
अब भी बाक़ी है उनमें
पलायन की टीस
लेकिन विवश हैं वो
नए परिवेश के हाथों
चाहे अनचाहे जो कहो
कभी-कभार जब
आते हैं पहाड़ के गाँव
तो नज़ारा चिढ़ाता है
अपनी नीरस स्थिति
और परिस्थिति दिखा
लोग गिनती के बचे हैं
गलियाँ उदास पड़ी हैं
खेत-खलिहान सब
बंज़र रूप में हैं
वातावरण शान्त है
पशु-पक्षी अचंभित हैं
क्यों नहीं है यहाँ अब
वो पुरानी चहल पहल
ज़र्ज़र मकानों से मानो
असहनीय दुःख दीखता
इनके आबाद दिनों के
पुराने कथानक का


Tuesday, October 14, 2014

दर्द के आयाम

दर्द बिन माँगे
मिलता है यहाँ
हर किसी को
लेकिन फ़ितरत
आदमी की
बताती है कि
दर्द बड़ा है
या फिर एहसास
अपने दर्द का
औरों के दर्द का
एहसास भी
अपना लगता है
कभी- कभी
मीठा लगता है
अपना ही दर्द
कभी-कभी
शायद
अलग-अलग हैं
दर्द के आयाम

Sunday, October 12, 2014

यही क्रम

बस वही क्रम
सोच रहा हूँ
स्वयं को समझना
विश्व की समझ से
कहीं अधिक कठिन
नए-नए प्रश्नचिन्ह
उत्तर का अभाव सा
नए की तलाश में
नया नहीं मिला
कुछ भी, अब भी
जीवन प्रसंग भी
दृष्टान्त लगते हैं
सखा, मित्र, साथी
अनजान लगते हैं
देश-परिवेश सारे
एक से लगते हैं
लोगों के अहंकार
उनकी रीत, व्यवहार
शिष्ट-अशिष्ट आचार
पहचाने लगते हैं
फिर भी मुझ को
जीवन के सब रंग
अच्छे लगते हैं
अब यही क्रम मुझे
जीवन लगते हैं

pic credit: Madhu Sharma

Thursday, October 9, 2014

आज़माइश

मौसम की बयार का हम
हर लुत्फ़ यूँ आज़माएंगे
हर आज़माइश के साथ
उम्मीद अपनी जिलाएंगे
बहारों की तमन्ना लिए
सर्द मौसम गुजर जायेंगे
गर्मियों की रुत से पहले
बहारों के गीत गुनगुनायेंगे
बरसात के आलम सोचकर
हर गर्मी सहन कर जायेंगे
कुछ इन्हीं खयालों में हम
गीत मौसम के गुनगुनायेंगे
ज़िन्दगी की तरह हम भी
हर रंग ख़ुशी से रंग जायेंगे

Sunday, October 5, 2014

मन में बचपन

बचपन की कहानियाँ
छोटी-छोटी बात
आज भी याद है
छोटी चीज़ों से
छोटी-छोटी खुशियाँ
कितनी बड़ी लगती थीं
कल की सी बात है
बड़ी बातें बस सपने
जो मिले उसी में तसल्ली
दोस्ती ज़्यादा नफ़रत कम
पराये भी अपने
सब कुछ साझा
कोई कैसे भूल सकता है
अब बड़े हो गए हैं
सपने भी बड़े हैं
अपने भी पराये हैं
दोस्ती कम है
साझा कुछ नहीं है
खुशियाँ नदारद हैं
छोटी समझ में नहीं आती
बड़ी भी छोटी लगती हैं
शुक्र है दिल से सही
मेरे मन में मैंने
बचपन संजो रखा है

Saturday, October 4, 2014

तुम्हारी खातिर

कभी तुम भी
यूँ कह देते
चन्द अल्फ़ाज़
बगैर सोचे
लेकिन समझकर
हमारे बारे में
हम भी शायद
उम्मीद करते हैं
ऐसी तुमसे
कभी-कभी
भूले से सही
भुलाकर तुम
तुम्हारे पूर्वाग्रह
तवज़्ज़ो दे देना
हमारी बात पर
उम्मीद है
समझोगे तुम
हमारी खातिर नहीं
तुम्हारी
अपनी खातिर


Friday, October 3, 2014

बुराई-भलाई

बुरे लोग
जब करते हैं
बुरे काम
अच्छे लोग
अपने लिए
भजन करते हैं
दोनों मिलकर
अपने-अपने
जतन करते हैं
इसी कारण
बुराई-भलाई दोनों
सामंजस्य में हैं
फिर क्यों भला
हम यूँ ही
शिक़ायत करते हैं


शस्त्र ज्ञान

बेसुरी हो गई है रे अब कान्हा तोरी बांसुरी
तेरा भी नाम लेकर छेड़े हैं सब यहाँ छोरी

तुम तो रंगरसिया थे कुछ अलग तरह के
माखन चुरावत कभी या बस मटकी फोरी

आज के बेसरमों की मति में जो खोट है
प्रेम नहीं समझें बस लुटि जात लाज मोरी

तुम बचाये लाज द्रौपदी की चीरहरण से
पर अब के बांके छोरे करें चीरहरण मोरी

अब न ज्ञान अब न कोई बात यूँ समझाना
शस्त्र ज्ञान दो मोहे आके लाज राखो मोरी