Wednesday, September 28, 2016

दहशतगर्दी ख़त्म करेंगे

बुलंद हुई हैं आवाज़ें
वक़्त की सीख भूल
फिर गूँजते हैं यहाँ
पुरातनपंथी से स्वर
हर हाथ के बदले हाथ
हर सर के बदले सर
ऐसी समझ से शायद
वक़्त भी हँसता होगा
नतीजों की कौन सोचे
नारों के रिवाज़ जो हैं
विकल्प और भी है कई
लेकिन गुस्सा ज़्यादा है
रियाया परेशां है वहां भी
अवाम यहाँ भी परेशां है
'आर-पार' की बात में
आर-पार लोग भ्रमित हैं
कौन नतीजा निकलेगा
इतिहास नहीं लोग देखेंगे
अब अवाम ही मिलकर
दहशतगर्दी ख़त्म करेंगे
सियासत के नाम पर
कहीं जंग नहीं होने देंगे

Sunday, September 18, 2016

Days

Days
So few
They sound
Yet long enough
But why do they get over so soon
The cycle of the life is like that
Initially so many
As they sound
Diminishing
Slowly
Done!

.....another tetractys


जियो

जियो
जीवन ऐसे
ये इश्तेहार है
तुम्हारी ही जिन्दगी का
आज तुम यूँ नहीं जिये तो कल कैसे जी लोगे
देख लो ज़रा हर लम्हा जिन्दगी कैसे बुलाती है तुमको
आज के साये में जियो
कल का पता नहीं
कौन जान पाया
क्या होगा
कल

A 'Tretractys' poem

Saturday, September 17, 2016

आशा प्रबल है

हर परेशानी में साथ मेरे
मेरी आशा प्रबल है
देती है सदैव साथ मेरा
मानो जीवन का आधार है
जब ज़िन्दगी भटकती है
एक अंधकार से निकल
दूसरे अंधकार तक
हाथ को हाथ नहीं सूझता
अपना साथ दिखाती है
जब कोई नहीं साथ मेरे
अपना हाथ बढाती है
मुझे अबोध शिशु समझ
मानो उँगली पकड़ लेती है
मेरी अभिलाषाएँ अपार हैं
आशा ही एक अकेली है
कोई और हो न हो पर ये
हर समय मेरे साथ है

अक्स / Reflection

कहते हैं देख लो अपना अक्स
लेकिन वो नहीं दिखाते जो मैं हूँ
आइना उल्टा दिखता है अक्स
उससे बिलकुल उल्टा जैसा मैं हूँ

You say I must see my reflection
But not's not what exactly I am
It's the opposite of me actually
Juxtaposed to what really I am
Real me is me not my reflexion


ज़िन्दगी ढूंढती रह गई हमारा ही अक्स
सब तरफ लेकिन नहीं हमारे आस-पास
हम खुद भी हर जगह ढूंढते रहे अक्स
कल और आज, मिला नहीं आस-पास

Life kept looking for reflection
All around albeit not around me
I too kept looking for reflection
Then and now never found around me


खैरख्वाह से

वक़्त के साथ आईने देखे मैंने
गुज़रे वक़्त से लगे तुम मुझ को
कैसा आईना दिखाते हो तुम
मैं क्या हूँ एहसास है मुझ को
मुझे हकीकत में रहने दो तुम
गया वक़्त न दिखाओ मुझ को
कहते हैं आइने झूठे नहीं होते
तुम लेकिन और लगे मुझ को
लेकिन इतना मैं ज़रूर कहूँगी
खैरख्वाह से लगते हो मुझ को

Saturday, September 3, 2016

यही श्रेयस्कर

भुला नहीं पाया
अब भी जिसे मैं
इतने अरसे बाद
बुला रहा है मुझे वो
अब मेरी यूँ तो शायद
विवशताये नहीं कोई
लौट नहीं पाता हूँ
फिर भी मैं क्यों?
मन से चाहता भी हूँ
शायद, फिर भी मैं
किंकर्तव्यविमूढ़ सा
अनिश्चय में जकड़ा
असुरक्षा की भावना से
सोचता हूँ कैसे रहूँगा
इतने समय बाद, मैं
भौतिक भोग का आदी
यहाँ वहां हो गए हैं
तब के साथी भी सब
बांटूंगा सुख-दुःख किससे
मन ही मन से हार जाता है
दिलासा देकर कहता है
मैं आता-जाता रहूँगा
यही श्रेयस्कर होगा
मेरे लिए शायद !