Friday, May 30, 2014

Mess

The motives of people
Camouflaged under
The caring and sharing
And disguised intentions
Behind welfare deeds
Always resulting into
The unexpected events
Like the incessant rain with
Unannounced thunderstorms
Bringing unwanted dust
Swaying of the rubbish
Accumulating in my alley
Even after the storm
And the big splash
Making it a mess
Allover around me
Unwanted, unexpected
unacceptable to me!

Dichotomy

When it comes to self
People overrate self
Always with hopes
And relying on chance
But the same thing
People find it odd
When others try that
And take the chances
It is neither objective
Nor necessarily jealousy
That’s often the way
People advise others
Without practicing self



Thursday, May 29, 2014

तुम्हारे पास

तुम्हारे पास
मेरे लिए कभी
बस एक पल सही
बहुत मूल्यवान है
मेरे लिए लेकिन
बस एक पल वही
जी लेता हूँ मैं
कई कल्प वर्ष
उस एक पल में
तुम्हें होगा शायद
कुछ तो आभास
मेरे एहसास का
मैंने सँभाल रखा है
एक-एक पल
अपने प्यार का
जिसे में बाँटूँगा तुमसे
रहकर बस एक पल
तुम्हारे पास

Wednesday, May 28, 2014

समय के अँक में

लोक लुभावन अदा और
मोहिनी सूरत निहारते
लोग कितने मूर्ख बन गए
तुम्हारे शब्दजाल के
इस नए प्रपंच में
सम्मोहित हो गए हैं
कितने अट्टहास और
तालियों की गड़गड़ाहट से
ज़ाहिर करते हैं ख़ुशी
तुम्हारे इस हर नए तंज में
विवेकहीन न भी सही
किन्तु सम्मोहित है सभी
तुम्हारे इस रूप से
बढ़ गई हैं उनकी सब
अप्रत्याशित आकांक्षाएँ
अब मोहभंग होगा
अथवा अप्रत्याशित होगा
छुपा है समय के अँक में


Tuesday, May 27, 2014

अन्यमनस्क

कोई महफ़िल क्या सजेगी
आज गुमसुम से खयाल हैं
अन्यमनस्क सा हर कोई
शायद समय के सवाल हैं
सूरज ने किया बंद उधार
चाँद की रौशनी भी कम है
बारिश शायद कहीं खो गई
हर ओर सूखे का मौसम है
सभी पानी को मोहताज़ हैं
हर आँख फिर भी नम है
कोई अज़ीज़ दूर जा रहा है
रोकने वाले उसे अब कम हैं
सब अपनी ही धुन में खोए
खुद को पर समझते कम हैं

Monday, May 26, 2014

अपेक्षा से पहले

आसमाँ मुझे बुलाते हैं
लेकिन मुझे उनसे क्या
मैं ज़मीन पर भला हूँ
पहचानता जो हूँ मैं
यहाँ की एक-एक चीज
अक्सर लोग मुझे
अच्छे लगते हैं
वो भी शायद सोचते होंगे
मेरे बारे मैं भी अच्छा
न सोचें तो न सही
मुझे बस अज़ीज़ है
मेरी अपनी अच्छाई
तभी अच्छे लगते हैं
अक्सर लोग भी
सिर्फ सोच से नहीं
व्यवहार से होती है
यहाँ पहचान अपनी
अच्छे भले लोगों की
बुराई की जीत भी
क्षणिक तो हो सकती है
पर अच्छाई जीत जाती है
अपेक्षा से पहले ही


तुम्हारे लिए

हक़ीक़त की मुश्किलें
ख़्वाबों की दुनियाँ से
कितनी अलग हैं
शुरुआती दौर के
सपने देखना दिखाना
कितना आसान है
ये एहसास होता है
मुझे भी अब
फिर भी कोशिश रहेगी
सपनों सी न सही
लेकन फिर भी ज़रूर
सुन्दर होगी दुनियाँ
सपने देखता रहूँगा मैं
दिखाने के बजाय
पूरा करने की लिए
अपने लिए न सही
तुम्हारे लिए


Sunday, May 25, 2014

तूफां को सहारा

थक चुकी है ज़िन्दगी भी जीते जीते
फिर भी जीने का एहसास ख़ूब रहा

हर कोई मुसीबतों से डरा हम नहीं
ज़िंदादिली का ये एहसास ख़ूब रहा

रात के अँधेरे भी हमसफ़र ही तो हैं
अंधेरों का सहारा भी क्या खूब रहा

किसी रोज़ सोचा था करेंगे शिकवे
शिकायतों से किनारा भी खूब रहा

बनते-बनते बिगड़ जाती अक़्सर
किसी बात का इशारा भी ख़ूब रहा

तूफां हमारी क़श्तियाँ क्या डुबोते
क़श्तियों का तूफां को सहारा रहा

लोग

जीवन के आयामों के बीच
सदा से आगे बढ़ने को
रास्तों की खोज में लोग

दिल में अरमान के जोश
आज भी मोहताज़ ज़ज्बे के
अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष में लोग

कभी ख़ुद को तलाशते
कहीं अवसरों की तलाश में
परिस्थितियों के दास हैं लोग

अनवरत आकाँक्षाओं में
समय के तिलिस्म की
तोड़ को तलाश करते लोग

Saturday, May 24, 2014

इतनी सी अभिलाषा

कई आए और गए
सवाल मन के मन में रहे
तुम से है अपेक्षा

क्या दोगे तुम उत्तर
छोटे से सवालों के
सोच कर बताना

आसान नहीं होती
सच कहने की कोशिश
तुम कोशिश करना

सिर्फ यथार्थवादी नहीं
मैं आशावादी भी हूँ
तुम भी बनना

इतनी सी अभिलाषा
निष्कंटक निष्कलंक हो
ये तुम्हारी यात्रा

समय-गति

शांति के प्रयास में
कोलाहल के स्वर
निरंतर बढ़ते रहे
घटित तो घट चुका
स्वरों के क्रम
फिर भी बढ़ते रहे
सूर्य अस्त हो चुका
बादलों में रँग
फिर भी बदलते रहे
साँप निकल चुका
फिर भी लोग यहाँ
रस्सियों से डरते रहे
स्वर्गवासी हुआ कोई
आलोचनाओं के क्रम
फिर भी चलते रहे
समय-गति रुक गई
जगत के कार्य
फिर भी बढ़ते रहे

Friday, May 23, 2014

आडम्बर

मिलना चाहती है
जब ये साँझ
हर रोज़ अँधेरे से
तो तुम क्यों
जलाते हो दीप
सुबह के उजाले
होंगे ख़ुदबख़ुद
तो तुम क्यों
ख़ामख़ाँ ही
उज़ाला करते हो
शायद तुम
तलाशते हो
अंधेरों में भी कुछ
तभी शायद करते हो
इतना आडम्बर

Wednesday, May 21, 2014

ख़ून के घूँट

हम ज़माने पर हँस पड़ते हैं
कभी लोग हम पर हँसते हैं
नासमझ नहीं समझते हैं
बारीकियाँ ज़िन्दगी की हैं
कुछ तो बस हमसे परे हैं
कुछ उलझनें पाल ली हैं
कुछ लोग कम समझते हैं
कुछ हम न समझ पाते हैं
मशरूफ़ इस तरह हुए हैं
बस सब हाल ही बेहाल हैं
दिन यहाँ छोटे लगते हैं
रात बड़ी लम्बी हो गई हैं
कभी कभी झल्ला पड़ते हैं
कभी ख़ून के घूँट पी लेते हैं
जीने की ख़्वाहिश रखते हैं
बस किसी तरह जी लेते हैं


Saturday, May 3, 2014

आज नहीं तो कल

हम कितने पाक साफ़ हैं
तुम्हारी ईर्ष्या नहीं मानेगी
तुम सोचोगे भी ये कैसे
तुम्हारी तरह गिरे होते हैं लोग
तुम्हारी नज़र में
मगर तुम्हें रोका किसने था
पाक-साफ़ बनने से
तुम्हारी तो आदत है
बाज नहीं आओगे कभी
औरों पर लांछन लगाने से
हमारी नज़र में
हर कोई लानत देता है
तुहारे ही गलियारों में
और कितना नीचे गिरोगे
आज नहीं तो कल गिरोगे
तुम्हारी नज़र में