Monday, June 30, 2014

ज़िन्दगी आ के मिल

महक महक रहा समां
धड़क धड़क रहा है दिल
ओ ज़िन्दगी मेरी ज़रा
तू मुझसे आ के मिल
आ के मिल, आ के मिल, आ के मिल
ओ ज़िन्दगी तू मुझसे आ के मिल

फ़िज़ा में धूप है खिली
दिल की हर कली खिली
चमन खिला खिला सा है
प्यार की हवा चली
प्रेम का सिला सा है
ये मन बहक रहा सा है
आ ज़रा लगायें दिल
ओ ज़िन्दगी मेरी ज़रा
तू मुझसे आ के मिल

हरा भरा या बागबाँ
है रंग भरा ये पासबाँ
नज़र नज़र भटक रही
ख़ुशी का गीत गा रही
हर दिल में आस जग रही
तू भी आ लगा ले दिल
निसार हैं सभी के दिल
तू भी आ के मिल
ओ ज़िन्दगी मेरी ज़रा
तू मुझसे आ के मिल

महक महक रहा समां
धड़क धड़क रहा है दिल
ओ ज़िन्दगी मेरी ज़रा
तू मुझसे आ के मिल
आ के मिल, आ के मिल, आ के मिल
ओ ज़िन्दगी तू मुझसे आ के मिल

वो दिन आएगा


वही अंदाज़ वही मिज़ाज़ नहीं बदला यहाँ कुछ भी
बड़े ज़ालिम हैं मुल्क़ में और बहुत मज़लूम भी बाक़ी
ज़माना चूम लता है क़दम सुर्खरू लोगों के
जानना नहीं चाहता कितने सर कटे मज़लूमों के
सुर्खरू जानते गुर हैं जानकार भी अनजान बनने के
कोई मज़लूम तक नहीं सुनता दुखड़े कभी मज़लूमों के
सितमगर ढूँढ़ लेते हैं सितम के हर तरीकों को
उनके हैं रास्ते अपने उन्हीं के वास्ते घर कानूनों के
उन्हीं के चलते हैं चलते यहाँ घर भी वक़ीलों के
बरसती दौलतें उनकी छुपातीं हर राज़ हैं उनके
उमड़े जाते हैं हुज़ूम नज़र भर देखने को लोगों के
उन्हीं की है जम्हूरियत उन्हीं की सुनते हैं सब लोग
वो जो कह दें न शक कोई मिलेगा क्या यूँ शक कर के
जब माने उनको ही हैं हक़ीम वो सब बन्दे हैं उनके
कभी वो दिन भी आएगा नहीं होंगे ये सब उनके
धर्म, कानून सबके आगे होंगे बराबर सब जुर्म उनके


यक्ष-प्रश्न

तन भी मन भी
दोनों सुन्दर हों
कहती हैं सब की
अपनी अभिलाषा
यक्ष-प्रश्न सा
प्रश्न है मन का
अपने लिए भी
औरों के लिए भी
क्या हैं आयाम
मन की सुंदरता के
क्या हैं मानदंड
तन की सुंदरता के
कोई जान पाये तो
मुझे भी ज़रा बताना
लाभान्वित हो जाऊँ
तुम्हारे ज्ञान से मैं भी
क्या है सुन्दर
बतला दो मुझको भी

Sunday, June 29, 2014

कुछ अलग

ये महकती सी सदायें
ये क़ातिल अदायें
कोई तो बात है
खोई-खोई सी आँखें
बहकी-बहकी निगाहें
कोई तो राज है
मन के हर कोने में
जज़्बात रिझाते से
क्या वही बात है
बदहवास से लगते
दिल के अरमानों का
कोई तो अंदाज़ है
गर्मियों के मौसम में
देखना चाहते हैं
कहीं तो बरसात है
गीत निखरते हैं
एक नई मौसिकी से
कोई तो साज है
आज दिल खुश है
बात कुछ अलग है
बस यही बात है


Saturday, June 28, 2014

अन्तर्मन तक

जीवन की बगिया की सुंदरता पर
फिर कुछ जुमले कहते जाओ तुम
फूलों के हों बिखरे रंग कई जिधर
कोई बाग़ मुझे ऐसा दिखलाओ तुम
बादल की ग़रज़ नहीं है कोई भाती
कुछ बूँद सही सावन बरसाओ तुम
बारिश की बूँदों में भीगी-भीगी हो
यूँ मदमस्त छटा दिखलाओ तुम
बस लगें झूमने ज्यों दोनों हम-तुम
साथी गीत तो कोई ऐसा गाओ तुम
तन-मन में होगी सुखद कोई झंकार
आज राग कोई ऐसा छेड़ जाओ तुम
कह दो उन रूठी खुशियों से तुम मेरी
बस अन्तर्मन तक छाते जाओ तुम

Friday, June 27, 2014

पराकाष्ठा

जाने क्या क्या जतन कर
आशियाना बनाया था मैंने
रेत के घरौंदे सा बिखर गया
बस एक ही तूफ़ान के चलते
हथेलियों में सरसों उगाकर
संजोये थे कई अरमान मैंने
उन कल्पना के लम्हों के लिए
जो रह गए थे आते-आते भी
मेरी एक अधूरी कल्पना मात्र
अब मैं अनासक्त हूँ बस यहाँ
जो मेरा था मिल गया मुझे
जो न मिला वो मेरा नहीं था
कल्पना लोक की उड़ान सही
मेरे सुख की पराकाष्ठा थी

Monday, June 23, 2014

विकास के कुतर्क देकर!

अब और नहीं है
मेरे वश में
तुम्हारी सुरक्षा करना
मैं हज़ारों साल से
अडिग खड़ा रहा हूँ
आंधी-पानी और
ज़लज़लों के बीच भी
नैसर्गिक सुंदरता भी
मैं तुम्हें दिखाता रहा
तुम्हारे लिये ही
अपना शरीर काट-काट
नदियों को मार्ग देता रहा
और तुम!
मेरी ही अस्मिता को
नष्ट करते गए
बारूद की खेती से
बड़ी-बड़ी सुरंगों से
सड़कों के जाल से
निरंतर दोहन करते हुए
वनस्पति और खनिज का
क्यों मेरे विनाश पर तुले हो
बस विकास के कुतर्क देकर!
अब मैं खड़ा रहूँ भी कैसे
तुम्हीं बता दो मुझ को
अपने विनाश की राह तो
तुमने स्वयं चुन कर ली है
मेरे विकास को चुन कर
वो भी असंतुलित विकास
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ यहाँ
मैं भी तो बस

पल-पल मुस्कराहट

रेलगाड़ी में सहयात्री वह भी थी
सादगी और सुंदरता की प्रतिमूर्ति
शायद कोई राजस्थानी बाला थी
उसके ताज़ा महावर लगे हाथों से
वह बार-बार स्वचित्र लेकर
बगल के बच्चे से मिलकर देखती
अपने खुशनुमा अंदाज़ के साथ
मोनालिसा की सी ही मोहक
अपनी मुस्कराहट के बीच में
बार-बार बरबस प्रकट होती हुई
उसकी खिलखिलाती भाव-भंगिमा
मासूम आँखों से सब तरफ ही
उसकी विचरती नज़रों का क्रम
बैंगनी कुर्त और धानी सलवार
दोनों मिश्रित रंगों का दुपट्टा भी
शालीन से उस पर बखूबी फबते थे
करीने से पहने हुए उसके वस्त्र
सौंदर्य को चार चाँद लगा रहे थे
उसे देख यही आभास होता था
ज़िन्दगी और क्या यही तो है
पल-पल बिंदास मुस्कुराते हुए
अपने पर्यावरण एवं परिवेश में
अपनी स्मृतियों के बीच में
नए-नए अंदाज़ में मुस्कुराते रहना

जिया सो जीवन

मानो किसी कल्पनालोक में हैं
आकाश छूने की आकांक्षा में
जीवन के नए-नए खेल जारी हैं
एक निरंतर द्वन्द के चलते
ये पंचतत्व का भौतिक शरीर
आकाश में ही समा जायेगा
कल तुम्हारा तो कल हमारा
अपनी-अपनी बारी आते ही
शून्य से शुरू होकर फिर
समां जायेगा शून्य में ही
कभी-कभी मन करता है
एक अट्टहास के साथ हँसूं
हमारी अपनी प्रवृत्ति पर
प्रकृति व इसके नियमों पर
वो भी सब जान बूझकर
सत्य से एकदम उलट
समय बिताने मात्र को
ये भी तो एक ध्रुव सत्य है
समय बिताना ही होता है
सब छलावा मात्र ही सही
जो भी जिया वही जीवन है

अंततः

जब 'मैं' प्रबल था
सब कुछ अपना था
संवेदनायें जीवित थीं
अभिलाषा हावी रही थी
अपनों व परिजनों के
अनुभव एवं व्यवहार
रुचिपूर्ण से शुरू होकर
साधन बनते गए
क्रमशः विरक्ति के
माया-मोह, तेरा-मेरा
ह्रासमान होते गए
पराकाष्ठा तक पहुँच कर
वैराग्य के भाव भी आये
अंतर समझ न सके
विरक्ति और वैराग्य में
अंततः यही रास आया
संत-प्रवृत्ति शिरोधार्य है
कहीं, किसी भी रूप में


स्मृति पटल

सब स्मरण है मुझे
हमारी वो पहली मुलाक़ात
तुम्हारे लाल-हरे रुमाल के साथ
रेलवे स्टेशन पर
हमारा पारिवारिक सम्बन्ध
फिर वो निरंतर
मुलाक़ातों के सिलसिले
बातचीत के कई रंग
परस्पर प्रेम भाव
हमारे बीच की चर्चाओं में
हमारे वाद-विवाद
मैंने अनुभूति की थी
पिछली बार कुछ
हमारी आखिरी मुलाक़ात में
उसी रेलवे स्टेशन पर
तुम चले गए
लेकिन यादों का समंदर
और न जाने क्या-क्या
मुझे चिरस्मरण दे गए
शाश्वत शांति में अब
तुम शांत हो गए
बस नमन और श्रद्धांजलि
शब्द समाप्त हो गए
मुलाक़ातें ज़ारी रहेंगी
स्मृति पटल पर हमेशा

Saturday, June 21, 2014

Butter for Some

The competition thus over
Victorious ones are delighted
The losers too swearing by
Moral victory amidst defeats
There is no clear difference
In ways, opinions and policy
In the name of the nation
Each one has a single policy
Within the common agenda
Politicians talk of the polity
The curd is now churned
Butter for some whey for rest
Camaraderie now prevails
The similarity is at its best
Some skirmishes will happen
But only pretensions at test

Another Hope


Just another time of hope
Expectations are rekindled
The galore of tall promises
Each one outsmarting other
Gallops of jitters are around
Questions with no answers
Answers without questions
Brazen arrogance is visible
Subdued trying regrouping
Victorious are celebrating
Accusations and encounters
With or without any reasons
Words are those of bravado
None taking clear positions
The cause been already lost
People yet high in emotions
As if any saviour has arrived
Time will sure prove itself
It’s just yet another hope
Until the actions to follow
The paths of the promises
Another hope is just good
To fulfill the expectations
In whichever are the ways

Change

Whither surprises just now
It’s been around us always
Times don’t bring any change
It’s people who bring change
Those not think of just self
And think of most or more
Make sure change to happen
The older citadels must fall
Reasoning against the reason
Many choose paths of treason
Righteous ones will walk past
Beyond all inhibitions at last
Nights shall always be dark
Days sure have to be bright
Everyone must have to fight
To make our tomorrow bright

पतंग

बहुत सर्द मौसम में भी
मेरी क़िस्मत की पतंग
जलते अंगारों से घिरी है
इसकी कमज़ोर सी डोर
बादलों की ऊँचाई तक
जाने कैसे उड़ा लाई है
यहाँ सूरज की तपिश
गर्म थपेड़े में लिपटी है
जलाते हुए अँगारों सी
दुनियाँ के लोगों के
बर्ताव और फितरत से
अब एहसास मर गए हैं
सर्द व गर्म हालात के
पतंग लेकिन सलामत है


Friday, June 20, 2014

मौन-निमन्त्रण / सुमित्रानंदन पंत


स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मौन !

सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
प्रखर झरती जब पावस-धार ;
न जाने ,तपक तड़ित में कौन
मुझे इंगित करता तब मौन !

देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,
न जाने, सौरभ के मिस कौन
संदेशा मुझे भेजता मौन !

क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार ,
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना,बिथुरा देती अज्ञात ,
उठा तब लहरों से कर कौन
न जाने, मुझे बुलाता कौन !

स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
मिला देती भू नभ के छोर ;
न जाने, अलस पलक-दल कौन
खोल देता तब मेरे मौन !

तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार ,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार
कँपा देती निद्रा के तार
न जाने, खद्योतों से कौन
मुझे पथ दिखलाता तब मौन !

कनक छाया में जबकि सकल
खोलती कलिका उर के द्वार
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने, ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन !

बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
शून्य शय्या में श्रमित अपार,
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;
न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
फिराता छाया-जग में मौन !

न जाने कौन अये द्युतिमान !
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान
फूँक देते छिद्रों में गान ;
अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
नहीं कह सकता तुम हो कौन !


गर्मी

मौसम की गर्मी ने मार डाला
शुक्र है जज़्बातों में ठण्डक नहीं

सूरज का पारा सातवें आसमान
शुक्र है चाँदनी शीतल है अब भी

तपिश की मार का भी लुत्फ़ है
बरसात का इंतज़ार भी है अभी

आग सी दहकती है हर ओर ही
शुक्र है यादों की तासीर गर्म नहीं

बेवजह मौसम को क्यों कोसिये
लोगों के मिज़ाज़ कम गर्म नहीं

तन-मन की गर्मी से रखें परहेज़
मौसम की गर्मी हमेशा रहती नहीं


तितिक्षा

मुझे विदित है
नापसंद है तुम्हें
आलोचना करना
शायद मेरा
मैं परिवाद न कर
इतना ज़रूर कहूँगा
मेरी टिप्पणी
व्यवस्थाओं पर है
प्रयास अवश्य करूँगा
मैं तितिक्षा का
फिर भी लेकिन
मुझे प्रतीक्षा रहेगी
सुधार की भी
परिवर्तन की भी
तुम में भी
व्यवस्था में भी
मेरे आस पास भी
मेरा आशावादी होना
इसी का पर्याय है!


Thursday, June 19, 2014

रफ़्तार ज़िन्दगी की

रफ्ता-रफ्ता
गुजरते वक़्त में
रफ़्तार ज़िन्दगी की
बस बढ़ती ही गई
कैसी अज़ीब बात है
बनाये जो आशियाने
उनकी दीवार एक एक
वक़्त के साथ चलते
बस सिमटती गई
रोज़ नए तवारुख हैं
हर वक़्त ही
लेकिन फिर भी यहाँ
आशनाई घटती गई
उम्र के लेकिन
घटने के साथ-साथ
ज़िन्दगी की चाहत
बढ़ती ही गई

Wednesday, June 18, 2014

पहचान

हर दिल अज़ीज़ न भी हूँ अगर
संगदिली हो यूँ मुझसे अनजान
फ़ितरत कुछ ऐसी हो मेरी इधर
ख़ुद से भी तुम से भी हो पहचान
बेताब न होऊँ कर्तव्य पथ पर मैं
मुझे न बनना ऐसा भी धनवान
सबका हित हो मेरी अभिलाषा
बने प्रवृत्ति मेरी ऐसी गुणवान
त्याग यहाँ कुछ न भी कर पाऊँ
लालच मुझसे न माँगे कुछ काम
अनभिज्ञ सही दुनियाँदारी से मैं
हूँ न भी सही मैं कोई ज्ञानवान
कुछ भला जगत में कर जाऊँ मैं
मेरी बस इतनी सी हो पहचान


Tuesday, June 17, 2014

रस्म-ओ-रिवाज़

नहीं मानता फिर भी औरों की खातिर
रस्म-ओ-रिवाज़ ये निभाता रहा हूँ मैं
ज़माना इम्तहान लेगा हर तरफ से ही
अपने ही इम्तहान से घबरा रहा हूँ मैं
तुम्हारे सच में शरीक़ होने की खातिर
अपने अपने सच को झुठला रहा हूँ मैं
ठेस न लग जाए किसी के इस झूठ को
इस पाप का भागी बनता जा रहा हूँ मैं
कुछ भी कह लो मेरा भी अभिमान है
औरों की खातिर ही जिए जा रहा हूँ मैं


लम्बी साँस

भुला चुके हैं अब लोग
एक साल गुजर गया
भीषण भयावह स्वप्नवत
हक़ीक़त था बन गया
सबने देखा था बार बार
हमारा सब कुछ बह गया
दर्द के सन्नाटे में तब
कोई आवाज़ था दे गया
वो तो पुरानी बात थी
अब एहसास मर गया
वर्ष-गाँठ के नाम हर कोई
रूखी संवेदना सी दे गया
हमारे दर्द बांटने वालों का
एकदम टोटा ही पड़ गया
बस सहानुभूति के नाम
चंद अल्फ़ाज़ नज़र कर गया
हर शख्स आखिरकार
एक लम्बी साँस भर गया
....dedicated to anniversary of Himalayan Tsunami in India in 2013


चौराहे


ज़बाब नहीं सूझता था हमें उस रोज़
किसी ने पूछा हमसे कहाँ मंज़िल है
लेकिन कोशिश थी ज़बाब ढूंढने की
हम तलाशते ही रहे कहाँ मंज़िल है
मंज़िल की तलाश में भटकते लोग
कुछ नहीं जानते कि कहाँ मंज़िल है
हर तरफ चौराहे यहाँ मिलेंगे ज़रूर
मगर हर राह की अपनी मंज़िल है
अब गुजर गए हैं पुराने तौर तरीक़े
जहाँ भी रास्ता मिले वहीँ मंज़िल है
रास्ते ख़त्म हो जाते हैं जिस रोज़
ये समझ लेना होगा यही मंज़िल है


Saturday, June 14, 2014

प्रतिवर्ती क्रिया

अब भी कभी कभी
अकस्मात् ही
सोचता हूँ
कि पूछ लूँ तुमसे
उन प्रश्नों के उत्तर
जो नहीं सूझते मुझ को
हमेशा की तरह
अब मेरी परेशानियाँ
मुझ अकेले की हैं
पहले यदा कदा तुमसे
बाँट लिया करता था
और तुम भी
उन्हें अपना समझ
अपने अनुभव से
सीख दे देते थे
जैसे उन गुजरे दिनों में
बचपन से युवावस्था तक
अब लोग नहीं समझते
मेरी परेशानी को अपनी
बाँटने का प्रश्न ही नहीं
इसीलिए अब भी
मरीचिका में
तुम्हारे सामीप्य की
तुम को तलाशता हूँ
प्रतिवर्ती क्रिया की तरह !

Wednesday, June 11, 2014

कैसी बेताबियाँ

कोई देखा नहीं हमने हमनशीं की तरह
दो जहाँ छोड़ दूँ मैं इस जहाँ के लिए
ज़िन्दगी गीत सी है ग़ज़ल सी कभी
मौसिक़ी छोड़ दूँ मैं इस जहाँ के लिए
कई क़दमों में बसी हर ख़ुशी है यहाँ
हर सफर है ज़िन्दगी हमसफ़र के लिए
हर कोई है परेशां अपनी ख्वाहिशें लिए
ये अपनी मोहब्बत है सबक सभी के लिए
हम वो आशिक़ हैं जिसे कोई जल्दी नहीं
कैसी बेताबियाँ यहाँ हैं चार दिन के लिए

Sunday, June 8, 2014

Dark Night

It was a pitch dark night
I often hear people say
I do not consider it true
For I seldom experience
Unless dark clouds cover
The shining stars visible
The beautiful twilight
Always feast to my eyes
Enchanting constellations
The slow moving star line
The bright planets far off
I guess it’s yet brighter
Just matter of looking up
Beyond around oneself

Futile Civilization

Going by these trends
Of prevailing animal spirit
The times are hinting at
Return of primitive days
Each one being selfish
The show of the might
Everything being right
No care for the others
Breaking family bonds
Fragility of the relations
Ambition of the nations
The race to outsmarting
Each one and everything
The spirit to live for self
Self before the society
Community before nation
What an aberration it is
Futileness of civilizations!

Melody of Silence

The melodies of the silence
Makes me dream about
The self, the World and all
Together with soul scratching
The account of my journey
Of the paths, places and life
Pleasant and weird memories
Of the trajectory of living
The sour, sweet and bitter
The many experiences mine
Of and with the people many
The new and the old and next
The scaring anticipations too
The toil and exploits of man
The growing aggression too
The silent melody continues
With the storm in my mind
And deepening of thoughts

Fragile Times

Those who were close
Now avoid seeing me
Some express sympathy
Limited to their lips only
Mere meeting formalities
I still have my resolve
To live and brave it all
Without depending on
Anyone or all of them
I have struggled thus far
That helps me walk along
In spite of all problems
My frail body and health
Body cells degenerating
But my will regenerating
To live along being strong
With all my struggles here
Witnessing the stories
Ways and the anecdotes
Of people and the World
Fragility of life and times

Balanced by Time

I go by my understanding
Based on profound reason
Neutral, unbiased to core
Whatever be provocation
Trust you need bestow on
The time if not on myself
Time takes its own time
Without taking the speed
Of your overestimation
It expects the milestones
And the course of its own
Though I would agree to
You may have expectation
May be bit unrealistic too
But open to appreciation
With the results I produce
Someday and somewhat
Similar to what you want
In spite of my constraints
Within reasonable limits
Albeit, balanced by time

Love at First Sight

How true is the love at first sight
Shows up itself when reduce lust
Love prevails even without the lust
Or else diminishing is experienced
Love has no boundaries of its own
It also has no conditions or secrets
It grows even in the testing times
It may have temporary setbacks
But balances out everything soon
Without arrogance or any doubts
It expects more out of nothing too
Love is all pervasive and emotional
Not incidental but it does evolve
It grows beyond boundaries too
Seldom it’s momentary or unreal
Even in setbacks never bites dust
More in heart than in eyes or mind
Slow and steady and least selfish
Love can never be at the first sight
At best it may trigger at the sight
Not based on the lust at the sight
Difference between love and lust

Spirit that Prevails

Unreal is the life’s trajectory
Its philosophy is unreally real
The living is incidental here
Aging is incremental equation
Without following a pattern
Or a definite way to proceed
Amorphous yet has the scope
Of growing and adding on too
It is inductive yet deductive
It follows facile logic or reason
Contradictions everywhere
Everyone wants to survive well
And also wanting to live long
At the end its all by or for oneself
All relations come to an end with
No one willing to accompany
When one is dead or about to
Yet there is an essence in living
Everything you think here fails
It is spirit of living that prevails


Unreally Real

It was discomforting feeling
Don’t know how many years
Looking at his such frail health
And the increasing age of him
Emotions would reign in high
More when bidding good bye
Every time when I visited him
It was never before those years
That such thought would come
That this might be the last time
Of meeting and visiting him
He too may have thought same
But he never expressed that
I too hid my emotions always
He lived happily and healthy
For more than two decades
Philosophically I was right too
But destiny always prevails
Emotions are unreally real
The life and living incidental
Beyond our interpretations

Thursday, June 5, 2014

वज़ूद

मेरा वज़ूद भी
कुछ अजीब है
कितना अलग है ये
तुम्हारे वज़ूद से
तुम ठहरे यहाँ
अपनी मर्ज़ी के मालिक
मैं तुम्हारे आराम को
एक उपभोग की वस्तु
तुम्हें स्वीकारा जाता है
तुम्हारी हर बुराई सहित
और ये भी सच है
मुझे दुत्कारा जाता है
तुम्हारी बुराई के लिए
ये कहकर भी कि
शायद मुझमें कमी है
तुम्हारी हर बुराई को
कर दिया जाता है
नज़रअंदाज़ भी
बस एक अच्छी के बहाने
मेरी सब अच्छाइयाँ
गायब हो जाती है
बिना कारण जाने
एक बुराई लादकर
वह भी शायद
तुम्हारे कारण


बेपरवाह

बेपरवाह चाँद गुजर रहा था इधर मेरे रास्ते से
मेरे हिस्से की रौशनी का कर सौदा दरख़्तों से
कहने को तो था वो भी कोई चाँद भी पूनम का
अमावस सा अँधेरा था पास उसकी बेरुखी से
जुगनुओं और सितारों की रौशनी ही क़ाफी थी
मेरे बदले उसने की थी दोस्ती उन दरख्तों से
पूछना चाहा था मैंने उससे दुश्मनी का सबब
जाने क्यों छुप के क्या बोला वो उन बादलों से
वज़ह कोई नहीं मालूम मुझे जाने क्यों फिर भी
मैं भी हुआ था बेपरवाह उस चाँद की बेरुखी से
सितारों और जुगनुओं से कर ली दोस्ती मैंने
वो न पूनम से थे और नहीं कभी अमावस से


Wednesday, June 4, 2014

Inclusive

I too wish good for me
I wish good for us all
We may prosper together
Together we rise or fall
Without even thinking of
Special wish to be tall
My wishes not exclusive
Inclusive to one and all
Nor mutually exclusive
For trying anything small
When anyone thinks of me
I don't hide behind wall
As if I am you or other
Having together the ball
My wish doesn't matter
When you rise that tall
Nothing matters isolated
Howsoever be big or small


Tuesday, June 3, 2014

क़हक़शाँ

भूले बिसरे पलों की यादें हैं
ज़िन्दगी यूँ ही रवाँ होती है
ज़िन्दगी जब क़रीब आती है
कुछ तो बेबसी बयाँ होती है
मदहोश ये क़ायनात सोती है
होश हमको भी कहाँ होती है
उनकी बातें ही याद आती हैं
ये रात जब भी जवाँ होती है
यूँ अकेले भी बसर होती है
हर लम्हा क़हक़शाँ होती है
जब अचानक ये ठहर जाती है
उम्र भी कब मेहरबाँ होती है


Monday, June 2, 2014

out of eggshell


Finally I'm out of eggshell
After being in the darkness
Away from the sight of World
Wow! it's so bright out here
I have some inkling of this
But not sure what it is here
I shall have firsthand view
I need compassion and care
To begin with at least here
But I'm in hurry to grow up
Need to experience the World
I will go by your experience
Yet need my own impressions
Everything is new to me here
One can say I made beginning
I hope you all stand by me
And my first view the World
Keep my life brightened here