Friday, September 26, 2014

चलता रहा हूँ मैं

चलता रहा हूँ मैं
रुके हुए से वक़्त
ठहरी सी ज़िन्दगी
सब के साथ
अपलक देखते
लोगों की दृष्टि
और उनके
कौतूहल भरे
मिज़ाज़ के साथ
वक़्त के साथ
जमी बर्फ से हुए
दिमाग़ लोगों के
उनकी जड़ता के साथ
अपनी ही दृष्टि में
किंकर्तव्यविमूढ़
मेरे पूर्वाग्रहों के साथ
कभी रुकना चाहा
फिर भी रुक नहीं पाया
चलता रहा हूँ मैं

Saturday, September 6, 2014

तुम्हारी बात

मेरे लिए तो
बड़ा सम्मोहक था
यूँ अस्कस्मात्
मिलना तुमसे मेरा
लेकिन फिर भी
शालीनता के दायरे
आभास कराते रहे
मुझे प्रतिपल
मन की बात
मन ही में रखने की
ठान ली थी मैंने
परन्तु आज भी
भावनात्मक न सही
मधुर स्मृति के रूप में
मन-मस्तिष्क को
सुखद लगता रहा है
तुमसे वो मिलन
तुम्हारी बात
तुम्हें मालूम होगी

Friday, September 5, 2014

वजह की तलाश

अब तोड़ दो ये दीवारें
रस्म-ओ-रिवाज़ की
मज़हब और इबादत की
सूबे और ज़ुबान की
मुल्कों और मिल्क़ियत की
किसी भी फ़िरक़ापरस्ती की
आदमी और ख़वातीन की
बस इंसान बन कर देख लो
ये ज़मीन नहीं है हैवान की
वरना सब ख़त्म हो जायेगा
बातें करो इंसानियत की
जीने की वजह तलाश करो
ज़रूरत नहीं एक राह की
सिर्फ तरीक़े तो अलग़ हैं
बाक़ी सब तो एक सा है

Thursday, September 4, 2014

अज़ब खेल है

कई मुल्कों में देख
करतब हुक्मरानों के
लोग भी सोचते हैं
अज़ब खेल है इधर
जम्हूरियत का भी
किसी की परवाह नहीं
बस फ़ैसले करती है
ज़मात चुनिंदा लोगों की
तारीफ़ करते नहीं थकती
ज़ुबान खुद हुक्मरानों की
आदत हो गई है अब
लोगों को इस खेल की
वो भी बुन रहे हैं
अपने ताने-बाने सब
बेतहाशा भागता है
हर कोई यहाँ अब
बगैर सोचे या किये
परवाह किसी और की
मुल्क़ का क्या है
सब का है कहते हैं
इसीलिए किसी का नहीं
फायदे सब चाहते हैं
क़ायदे कोई नहीं मानता
औरों से रखते हैं उम्मीद
चिराग़ थाम उजाले की

Wednesday, September 3, 2014

ज़रूरी है हौसला

यहाँ और कुछ भी नहीं
समझ की बात है बस
तुम भी जी लोगे ज़रूर
चन्द परेशानियाँ ही सही
सभी जीते रहते हैं यहाँ
अपने हिस्से का जीवन
साँसें सभी की उधार की
कौन भला गिन सकता है
थोड़ी सी धूप कुछ जगह
जीने को और क्या चाहिए
ज़रूरी है हौसला बनाना
हौसला रख लो ऐसा तुम
ठोस चट्टान के बीचों-बीच
उगे हुए एक हरे पौधे सा
हर विपरीत परिस्थिति में
अलग़ से नज़र आता हुआ
कमज़ोर लेकिन हरा-भरा
सब मुसीबतों से जूझता