अब के अमराई में
लदालद भरीं बौरें
मैंने भी देखी थीं
सोचा था मिलेंगे
यहाँ आम बेशुमार
लेकिन फल नदारद
जाने क्या हुआ
दाने बनते बनते
सब सूखने लगे
मेरे हिस्से क्या
कुछ न आ पाया
बंदरों के भाग में
पंछियों के हिस्से
आम अब नाम रहा
उम्मीद क़ायम है
दिखेंगे आम फिर
नए मौसम में!
You remain visible to me
Yet so far away from me
Glimpse of you is enough
To internalise Of yours
Images many within me
Be small yet dazzling
As if galaxy within me
Others too find a view
Harmony of you and me
What they find amazing
Matter of comfort to me
It sure is reflection of
Your image through me
I feel the presence
So all over within me
He wanted it simple
She wanted her way
They argued, fought
Yelled at each other
They listened the other
Also introspected then
Found a middle path
They laughed out loud
On such a small thing
They had really fought
They sorted it all out
Amicably, respectfully
Became happy again!
एक बार आई थी
चिंगारी यहाँ
नए इंक़लाब की
'पुनः मूषको भव'
कर डाला था
पुरातन पंथियों ने
अब वो फिर
आई है यहीं
शोला बनकर
बना कर सभी
'सिंहों' को 'मूषक'
अबकी बार
अग्नि परीक्षा है
सुशासन, सुव्यवस्था
और सदाचार की
इंतज़ार करेंगे
सुर्खरू होने का
इनके ज़िंदा होने का
अब आखिरी बार !
नये की चाहत पुरानों पर भारी है
अब ज़माने के मिज़ाज़ नये से हैं
कोयल आज भी मीठा गा रही है
शब्दों से रसवंती छलका रही है
लेकिन लोगों के स्वाद बदले से हैं
अब वो काक-स्वरों को सुनते हैं
अब नई हरेक चेहरे की रंगत है
कोयल की बोली पुरानी लगती है
काक-सुर नई परिभाषायें देते हैं
अब वही कर्ण-प्रिय लग रहे हैं
आज भी यहाँ
रियाया बेबस है
हुक्मरान खुश हैं!
और नौकरशाह
माध्यम बनते हैं
भ्रष्ट तंत्र और
इसके प्रपंचों के
प्रेरक व समर्थक हैं
नरभक्षियों के
आशा में
चन्द हड्डियों की!
बदनीयती के खंडहर
आज भी रोशन हैं
ज़ुल्मों से यहाँ
इन नरपिशाचों के
अब क्या मालूम
क्या कर पायेगा
कोई फ़रिश्ता भी
इस सब को मिटाने को!
दीखता तो बिलकुल औरों सा ही था
अजीब सी चमक थी उसकी आँखों में
कुछ कर गुजरने का बीड़ा उठा लिया
न जाने क्या सोचकर उस शख़्स ने
कुछ भी कर सकता था वो शख़्स भी
जाने क्यों टिकी नज़र ईमानदारी में
हरेक से जुड़ने की मिन्नतें करता था
उम्र पूरी गुजर गई थी ठोकरें खाने में
खुद के लिए कुछ न कर पाया कभी वो
सुनता रहा था घर भर के भी उलाहने
निकला था कमबख्त दुनियाँ सुधारने
अच्छा ईनाम दिया था उसे ज़माने ने
आप गुज़रा वक़्त हैं वो मेरे कल की उम्मीद हैं
अपनी भूल जाइये कि हम आपकी उम्मीद हैं
आप माँ-बाप सही हम भी तो अब माँ-बाप ही हैं
आपका समय कुछ और था हमारा अब और है
आप इतिहास के पल हैं हम आज का समय हैं
आप लगभग भूतकाल हैं हम पल वर्तमान के हैं
आप रेडियो-टीवी के तो हम ऑनलाइन वाले हैं
आप रोटी दाल भात हम तो फ़ास्ट फ़ूड खाते हैं
आपकी सोच देशी है हम दुनियाँ की सोच वाले हैं
आप तो गुजर जायेंगे हम तो अभी रहने वाले हैं
Life keeps us mesmerised
Knowing so well its story
We all remain hypnotized
With the quest for glories
Collections, recollections
Making living or relations
Pursuing name and fame
Acquisition of materials
All bringing competition
The envy and jealousies
Paradox in various forms
Continue spirit of living
Without getting to nuances
आँखों में उन्हीं की सूरत है
इस दिल में बसी वही मूरत है
वो हमसे जुदा हम खुद से जुदा
नहीं प्यार की कोई ग़ुरबत है
ये इश्क़ की ऐसी दौलत है
कहाँ मेरी और ज़रूरत है
मरहम भी यहाँ हैं दुखा जाते
ज़ख्मों की ऐसी शरारत है
वो लाख करें कोशिश अपनी
यहाँ बढ़ती जाती मोहब्बत है
आँखों में उन्हीं की सूरत है
इस दिल में बसी वही मूरत है
हम भी मुंतज़िर हैं बड़ी कामयाबी के यहाँ
नसीब के आगे मगर कब ज़ोर चलता है
जो भी झूठ कह दीजिये सब झलकता है
आईना हर दौर हर वक़्त आपका चेहरा है
किसको नसीब का धनी कह देते हैं आप
मायूसियों के दौर से हर शख़्स गुजरा है
सोचा था खेलोगे खेल को खेल की तरह
आपकी नज़र में शायद हरेक ही मोहरा है
हम कमनसीब सही फिर भी खुश हैं बड़े
जो भी कहते हैं वैसा ही हमारा चेहरा है
हम दिन गिन-गिन के नहीं करते गुजर
हमारी ख़ुशियों में लगा वक़्त का पहरा है
सिर्फ सुनकर जिसे
देश का क़र्ज़ याद आये
हरेक को औरों के लिए
अपना फ़र्ज़ याद आ जाये
एक गीत ऐसा गाओ
सुनकर जिसे सब के
दिल का दर्द सिमट जाये
संगीत के कर्णप्रिय राग
मन में झंकार भर दें
एक गीत ऐसा गाओ
सुनकर जिसे तन-मन में
मधुर भाव और प्यार आये
औरों की खातिर त्याग की
ख़ुद कुछ भावना आ जाये
एक गीत ऐसा गाओ
सुनकर हर तरफ खुशियाँ हों
कानों में ऐसा रस बरसाओ
सुनकर सबरस मिल जायें
आनंद अलौकिक छा जाये
एक गीत ऐसा गाओ
मैली कुचैली व्यवस्था में यहाँ
स्वतंत्रता के लाभ कुछ को हैं
ये मानवता का अभिशाप है
ज़ुल्म और सामंतवादी प्रथा
आज भी प्रश्रय देती हैं जहाँ
विवेक अविवेक से हार कर
समा जाता है जान बूझकर
गर्त में एक ऐसी खाई के
कभी नहीं भर पाने वाली
उसकी अंधकार की सीरत
जहाँ भूले बिसरे भी कभी
कोई सूरज तक नहीं आता
अंततः एक सतत अंतहीन
धुँधला सा भविष्य उसका
सघन गर्त में समा जाता है
उम्मीद आती-जाती रहती हैं
दिन रात की तरह प्रतिदिन
चंद लोग उम्मेीद जगाते हैं
बाक़ी उम्मीद मिटा प्रशस्त हैं
नामुमकिन मुमकिन न हो पाये
फिर भी हुनर आज़माना चाहते हैं
चलिए जो होगा वो देखा जायेगा
अपनी तरफ़ से कोशिश करते हैं
लोगों की नज़र में बेवक़ूफ़ी सही
धागे से पहाड़ खींच लेना चाहते हैं
जो मिला तो पहाड़ होगा अपना
न मिला तो धागा खोना जानते हैं
वक़्त के नाम ज़िन्दगी वो करते हैं
जो ज़िन्दगी के हुनर नहीं जानते हैं
कोशिश कर के हम अब भी इधर
पत्थरों पर फ़ूल खिलाना चाहते हैं
किये जा रहे हो
प्रश्नों की बौछार तुम
अपने ही मंतव्य से
ये भी जानते हो
तुम भी भागीदार हो
इनके उठने के पीछे
उत्तर जो भी होंगे
सवाल साझा से हैं
कुछ सवाल हमारे भी थे
उत्तर नहीं दोगे तुम
और अगर दोगे भी
तो सियासत से प्रेरित
ये जानते हैं हम
हम अब शायद
ये भी समझने लगे हैं
सियासत अब एक
सेवा नहीं व्यवसाय है