सोचता हूँ मैं भी
एक अरसा गुजर गया
लोगों को देखते हुए
सीमाओं को लांघते
यहाँ अक्सर मेरी
फिर सोचता हूँ
कहीं ज़्यादा है
उम्र मुझसे शायद
मेरे घर की दहलीज़ की
जो ज़माने से देखती है
हर किसी को लांघते
खुद को सारी उम्र
तब लगता है
देखता रहूँ मैं भी
यूँ भी चेतन कम
जड़ ही ज़्यादा हूँ
शायद अब मैं भी