जो था उसे बिसराकर मैंने
क्या क्या कल्पना संजो दी
बसंती पवन के इंतज़ार में
मैंने शरद की बयार भुला दी
शिशिर के शीत में भी मगर
बसंत की मादकता दिखाई दी
बसंत आ तो गया था, मगर
बसंतीं पवन में खुशबू कहाँ थी
कल के इंतज़ार में बस मैंने
आज की थी अवहेलना कर दी
फिर भी इंतज़ार के लम्हों में
मैंने ज़िन्दगी ख़ुशी से बिता दी
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