Sunday, November 14, 2010

अवहेलना

जो था उसे बिसराकर मैंने
क्या क्या कल्पना संजो दी
बसंती पवन के इंतज़ार में
मैंने शरद की बयार भुला दी
शिशिर के शीत में भी मगर
बसंत की मादकता दिखाई दी
बसंत आ तो गया था, मगर
बसंतीं पवन में खुशबू कहाँ थी
कल के इंतज़ार में बस मैंने
आज की थी अवहेलना कर दी
फिर भी इंतज़ार के लम्हों में
मैंने ज़िन्दगी ख़ुशी से बिता दी

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