Wednesday, December 31, 2014

बहाना सही

बहाना सही
नए साल का
बढ़े मिठास
कुछ रिश्तों में
बढ़े शान्ति
चारों ओर
हर्षोल्लास का
अनुभव हो
सुखद सबका
सबके साथ
व्यवहार हो
जो मिले उसमें
संतोष हो
शिकायत हो
कोई नहीं
सब तरफ़
सद्भाव हो
प्रगति के साथ
मानवता का
विकास हो

Sunday, December 28, 2014

त्यार शहर किलै ऊँ (Kumaoni)

त्यार शहर मैं नि उनूं, मैं पहाड़े भली छूं
रंग चंगीलो पहाड़ मेरो; त्यार शहर किलै ऊँ

शहर का लोग कुनी, कचकचाट करने रूनी
भ्यार भला बणी रूनी, घरवाली केँ खूब सतूनी
दफ्तरन में काम नि करी, औरन कें खूब मैक्यूनी
यहाँ चेली बटिनक चली रुं, त्यार शहर किलै ऊँ

आपण आपण बाट हिटण, आपण आपण दोस्त छन
आपण बोली क्वे नई बोलन, अंग्रेजीक खुट तोड़नी
घर में ले सब आपण आपण, गैज़ेटन में बिज़ी रुं
यहाँ फसक-फराल हुनी, त्यार शहर किलै ऊँ

इज-बाबू आम-बड़बाज्यू, आपण दगड क्वे नई धरन
मुख में अलग भितर और, एक दुसरा नान समझनी
नानतिन ले अंग्रेजी गईं, हम जसाना क्वे नई पूछन
यहाँ भितर-भ्यार एक छन, त्यार शहर किलै ऊँ


लाशों के ढेर से अलग

अनिश्चय व अनिर्णय
एकमात्र विकल्प हैं
इंसानों की खाल में
घूम रहे भेड़िये हैं यहाँ
आतंक के चलते हुए
बदहाल है सुरक्षा सर्वत्र
मारे जाते हैं लोग यहाँ
रोज़ जानवरों की भाँति
कभी कहीं तो कहीं और
कोई डरे हुए मेमने से
कातर नज़र से देखते
छोटे-छोटे बच्चे यहाँ
किंकर्तव्यविमूढ़ हैं
भाग्य के सहारे चलते
जीवन के समस्त रंग
आखित कब तक चलेंगे
दुस्साहस का विकल्प
सदैव साहस नहीं शायद
लेकिन सब लोग मिल
सक्रिय पहल कर सकते हैं
शांति व् सद्भाव के निमित्त
सबके भविष्य की खातिर
कोई तो निकल सकता है
मध्यमार्ग ही सही
लाशों के ढेर से अलग !

Saturday, December 27, 2014

सब्र बेसब्र है

सब्र का इम्तहान लेती
बेताबियाँ थीं बड़ी कभी
हर चीज की जल्दी बड़ी
भीड़ में बसर थी ज़िन्दगी
वक़्त की नसीहतों के साथ
बस थम सी गई ज़िन्दगी
अब सब्र बेसब्र है अक्सर
सब शांत है अंदर बाहर
जो मिला जैसे भी मिला
अब नहीं कोई गिला
भीड़ का साथ छोड़ अब
तन्हाईयाँ रास आने लगीं
गुमसुम नहीं फिर भी मगर
यूँ मुस्कुराती ज़िन्दगी

Friday, December 26, 2014

अँधियारा मन मौसम

अँधियारे से मन मौसम थे
मन को ना आँखों को भाये
पहले ही से था मन में कुछ
सघन कुहासा सा छाया
अब बाहर मौसम में भी
सुबह-शाम है ऐसा छाया
किरण ज्ञान-चक्षु से मन का
अँधियारा है बना उजियारा
सूर्य-रश्मि से हुआ पराजित
मौसम का अब सारा कोहरा
कुछ मन से कुछ आँखों से
लगने लगा सुखद ये नज़ारा

Tuesday, December 23, 2014

मिल कर बदलेंगे

अब सरकारें नहीं
लोग रास्ते बना रहे हैं
प्रयास किसी के भी हों
सब लोग समझ रहे हैं
कोई लाभ नहीं होगा
अनर्थक विवेचना का
किसी भी एक या विशेष
व्यक्ति या संस्था की
लोग स्वयं जानते हैं
ये शहर बदल रहा है
लोगों की सोच के साथ
ये देश बदल रहा है
फिर जाने क्यों यहाँ
कभी कभी लगता है
कुछ नहीं बदल रहा है
उम्मीद फिर भी ज़िंदा है
सब मिल कर बदलेंगे

Monday, December 22, 2014

शायद इसीलिए

हरेक को शिक़ायत है
कही समाज व देश से
कभी बेगानों से
कहीँ अपनों से है
थोड़ी रोज़गार की
कई परिवार की
प्रायः सम्बन्धों से
कुछ व्यवस्था से है
नज़दीक से देखूं तो
ऐसे भी लोग कई हैं
जिनको यहाँ खुद से
अपनी ही शिकायत है
इस सब से लगता है
शायद इसीलिए ही
जी रहे हैं लोग क्यों कि
साँस चल रही है!


Saturday, December 20, 2014

सुबह के रंग

सुबह के ये रंग बड़े मोहक हैं
हर पल नए दीखते आकाश में
जगा से रहे हैं संसार भर को
पंछी अपनी अपनी बोली में
कुछ खुसर पुसर सी करती हैं
तितलियाँ फूलों के कान में
धूप और बादलों की ठिठोली
क्या लहराती उमंग सागर में
यत्र-तत्र विद्यमान आँखें गढ़ाए
मछुवारे शिकार की तलाश में
एक एक पल का अपना क्रम
सब कुछ चलता एक लय में
प्रकृति के भी नियम हैं अपने
शायद लोग कुछ सीखें इनमें

Friday, December 19, 2014

जज़्बे की बात

कदम रुके भी जहाँ हम चलते चले गए
हौसलों को मंज़िल का हवाला देते गए
दूर है मंज़िल ये एहसास तो हम को है
होगा नज़ारा एक दिन ये विश्वास भी है
कारवाँ अपने-अपने मंज़िलें भी अपनी
होंगे हम कामयाब तज़ुर्बा साथ तो है
नई डगर चल नई मंज़िल शायद आये
ये न सही वो सही भरोसे की बात तो है
लड़खड़ाते कदम बन सकते हैं ताक़त
और कुछ नहीं बस जज़्बे की बात है


Sunday, December 14, 2014

स्वतोन्मुख

सर्दियों के मौसम सी
बढ़ती रिश्तों में ठंडक
जाने क्यों नहीं बदलती
बदलते मौसम की तरह
वसंत और गर्मी का
मानो कोई असर नहीं
पहले तो ऐसा न था
लोग प्रायः भूलते थे
बस कुछ ही पलों में
कड़वाहट और ठंडक
अब सब बदल गया है
स्थिरता का ज़माना है
तो फिर ऐसा क्यों है
गर्मी में असर कम क्यों
शायद अपेक्षा अधिक हैं
वो भी एकतरफा सी
स्वार्थ-सिद्धि के द्योतक
रिश्ते भी बन गए हैं
हमारी स्वतोन्मुख होती
मानसिकता के प्रतीक

Saturday, December 13, 2014

आँख का चश्मा

तुमने स्वयं किया है
सत्य से परहेज़ शायद
फिर तुम्हारा मनोनय
क्यों न होगा आधारित
असत्य, आंशिक सत्य से
तुम्हारी आँख का चश्मा
तुम्हें भ्रमित करता है
शायद सत्य दिखाई दे
आँख का चश्मा उतार दो
देख लो हर रंग यहाँ
हरा या गुलाबी नहीं है
थोड़ा गहराई से देखो तो
ये सूरज की रौशनी है
जो सब को देती है रंग
सबकी फितरत परख
परावर्तित कर रंग को
वरना सब काला है

Matter of Hearts

Passing through here
The galaxies so many
Witnessing and living
Amorphous existence
We all gathered here
To mark and pass time
Thinking and talking
Spend time own ways
Invent and reinvent
Yet questions remain
Mind boggling mystery
Puzzle has no solution
Acceptable to each one
The matters of heart
Do have concessions
Different perceptions
Acceptable approaches
Varied of the each one
Whole of this cosmos
Is perhaps nothing
But matter of hearts
As you take it yours

प्रासंगिक नहीं रहा

मेरे भी कुछ मित्र इधर
करते हैं सवाल मुझसे
कि मैं भी अब शायद
नहीं करता हूँ प्रायः
पुरज़ोर विरोध अब
व्यक्तियों, व्यवस्था का
पहले की तरह
मैं स्वयं भी स्वयं से
करता हूँ ये प्रश्न
ऐसा नहीं है कि
बदल गया हूँ मैं
कभी लगता है लेकिन
प्रासंगिक नहीं रहा अब
मेरा तरीका और सोच
फिर भी, सिद्धांततः
मेरा विरोध जारी है
व्यव्हार में भी
मैंने भी बदले हैं
अपने तौर तरीके


कोई अज्ञात सा

मेरा परिचय
मानो इतना सा
मैं भी तारा सा
एक आकाश का
चमका तो दिखा
वरना अज्ञात सा
अनगिनत हैं यहाँ
लोग मेरे जैसे
कोई जाना-पहचाना
कोई अज्ञात सा
यूँ भी मैंने स्वयं
देखा है पाया है
परिचय अब तक
अपने इर्द-गिर्द के
छोटे से संसार का
कोई कुछ भी कह ले
वो भी मेरे सरीखा
हर कोई अज्ञात सा

हमारे वज़ूद पर

रूबरू हैं हम से आज
हमारी अपनी शख्सियत
हमारे आस-पास के
पूछ रही हैं सवाल
हमारे ही बारे में
कभी इंसानियत के
और कभी इंसानों के
शायद अब भी कहीं
हमें इंसान समझ कर
नहीं हैं जबाब हमारे पास
उनके सवालों के
हमने कभी सोचा नहीं
ऐसी नज़र से
हमारे आस-पास पर
शायद सवाल हम पर उठे हैं
या हमारी इंसानियत पर
हमारे वज़ूद पर

मंज़र बदल गया

मनमोहक राग सुन
आनन्दित थे सभी
साथ में सुरीले साज़
बेहतर बना रहे थे
मधुर कंठ से निकले
वाणी के सुरों को
निरन्तर गड़गड़ाते
तालियों के स्वर भी
मानो थमते न थे
अब समां बदला है
स्वर बेसुरे लगते हैं
साज़ नदारद हैं
तालियों की जगह
तिरस्कार के स्वर हैं
सुरों के साथ प्रायः
ताल नहीं मिल पाई
या शायद बदली है
लोगों की मानसिकता
मंज़र बदल गया है

Friday, December 12, 2014

अवशेष मात्र

बड़े गर्व से कहते थे हम
श्रेष्ठ विचार और सभ्यता
हमारी थाती रही है सदैव
दृष्टान्त दिया करते थे
इतिहास के पन्नों से
लेकिन अब चर्चा में है
बहुत कुछ बदला है यहाँ
मानो आयाम ही बदल गए
जीवन और संस्कृति के
चारों ओर कोलाहल है
अनाचार, दुराचार का
स्वार्थ के नग्न नृत्य का
मानो कि यहाँ केवल
अवशेष मात्र रह गए हैं
सभ्यता और संस्कृति के

Thursday, December 11, 2014

Peace at Self

We often lose peace
Of mind and behavior
With several causes
Provocations around
Induced by the people
Whatever be reasons
Blasts in our thoughts
Exacerbating through
Cause, consequences
Perceived or of fears
Temporary and unreal
All it requires to have
To be at peace in self
Bed time sober minds
Comforting assurance
From self and others
And on an aggregate
Serenity of thoughts
Controlled by ourselves
Come any provocations

Tuesday, December 9, 2014

Fix Your Mess

When no one is there
And you need any help
You are the best person
Who is a reliable help
So many ways yourself
To deal with problems
Emotional and actual
Coping with situation
To the extent possible
Taking self out of it
Then you can realize
Some help comes to you
From other quarters
Not sharing the bulk
Try just chipping in
Sure are the exceptions
It might be different
In compelling situation
Yet overall it's true
You need to sort out
Problems and the mess
In your life yourself

Sunday, December 7, 2014

किम्वदन्ति

समय व स्वार्थ बदल देते हैं
रिश्ते, अभिप्राय, प्रयोजन
गतिशील से होते सम्बन्ध
व्याख्या उभयरूप में सही
मेरे नज़दीकी मित्र, प्रियजन
कल ऐसा आदर भाव रखते थे
मानो मेरे प्रियजन सभी हों
समय के साथ मैं नहीं बदला
वो लोग शायद आगे बढ़ गए
आज लोग अब चर्चा करते हैं
मेरे बारे में सवाल करते हैं
अपने कारण व तरीकों से
उद्धरण देने का प्रयास भी
मेरे न बदलने के विषय में
उनके व्यवहार से लगता है
मानो कोई किम्वदन्ति हूँ मैं

Saturday, December 6, 2014

Nothing is Your or Mine

Some days were enthusiastic
Few days we spent worrying
More days brought insecurity
Many days we plan in security
In chosen days we lived amply
Living we understood so well
Life we haven't yet learnt simply
Time clock keeps ticking ahead
We still look for time to sort it out
In the end both life and time elude
Something as nothing to conclude
Moments lead to spending all time
In the end nothing is your or mine

Thursday, December 4, 2014

इनकी दृष्टि में

उकता गया हूँ अब
इन व्यवस्थाओं से
जहाँ मिलती है पनाह
कामचोरों को हमेशा
भ्रष्ट और निकम्मों से
इनके जीवन के आयाम
सदाचार की आलोचना
दुराचारियों की जय
ये बहुमत में होकर
एकस्वर में गाते हैं राग
अपने व्यवहारिक होने के
सब में ही खोट होने के
भरपूर जीवन आनंद के
इनके भी सिद्धांत हैं
घिनौने और खोखले
हर अच्छाई से टकराते
इनकी दृष्टि में बस
अनैतिक की नैतिक हैं
बाकी सब मूढ़ हैं
ये शायद सफल भी हैं
लेकिन केवल
इनकी दृष्टि में

मूकदर्शक

अजीब बात है !
न जाने कहाँ हैं यहाँ
संवेदनायें लोगों की
जैसे कि गुजरता हूँ
एक पत्थर के शहर में
बहरों की गलियों से
जहाँ की एक प्रथा है
फ़रियाद करने की
सिर्फ़ अपने लिए
वो भी कातर स्वर में
औरों के लिए ये लोग
निभाते हैं परम्परा
मूकदर्शक होने की
या फिर हमेशा
देखी-अनदेखी करने की
बिना इस भान के
कि वे सहभागी बनते हैं
अन्याय, जुर्म, अपराध में
अनजाने में नहीं
बिलकुल जान बूझकर