Saturday, September 28, 2013

शहीदों की चिताओं पर ( Shaheedon Ki Chitaon Par) ~ by जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’


शहीदों की चिताओं पर ( Shaheedon Ki Chitaon Par) - जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’


उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा !

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा !

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा !

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा !

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा !

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा !

Thursday, September 26, 2013

बेताबियाँ / Impatience

वही राज़ सीने से निकलना चाहते हैं रह रह के
जिनको गहरे से छुपा के रखा है हमने हर बार
जितना भी छुपा लें हम दिल के अन्दर गहरा
बेताबियाँ मोहब्बत की बढ़ती जाती हैं हर बार
The same secrets are raring to come out
Those I had kept buried deep inside heart
The impatience of love always on the rise
Howsoever I may hide it deep in my heart

Wednesday, September 25, 2013

आशियाना / Abode


चार दिन का ही तो यहाँ आशियाना था
लेकिन कहने को एक अच्छा बहाना था
हम नहीं कहेंगे वो जिन्हें आज़माना था
चाहे कुछ भी हो ये अच्छा अफ़साना था
It was an abode just for few days
But it was a very good pass-time
Not I those who tested shall state
Whatever it was but good storyline

Sunday, September 22, 2013

ख़्वाब

वज़ह ऐसी कुछ न थी फिर भी
कभी ख़्वाब देखा करता था मैं

बड़े खूबसूरत होते थे मेरे ख़्वाब
पूरे होते भी देखना चाहता था मैं

जानता था ख़्वाब नहीं होते पूरे
फिर भी एक सुकून पता था मैं

ख़्वाबों की दुनियाँ एक छलावा
इस बात का एहसास पाता हूँ मैं

ख़्वाब नक़ली सोच भी जगाते हैं
ख़्वाब नहीं देखना चाहता अब मैं

ख़्वाब फिर भी आ जाते हैं जब
तो ख्वाबों से नहीं कतराता हूँ मैं

Saturday, September 21, 2013

एक मुट्ठी धूप

मैं एक मुट्ठी धूप लाने चला था
हथेलियों तक तो वो आई भी थी
सोचा था शायद संभाल ही लूँगा
बंद मुट्ठी में आसमान की तरह
लेकिन मुट्ठी बंद होते ही सारी धूप
अचानक जाने कब हवा हो गई थी
शायद उसे बंद रहना पसंद न था
या उसका हक़दार हर शख्स था
अकेले मेरी हसरत क्यों पूरी होती
अब मैं समझ गया हूँ अच्छी तरह
देने वाले पर लेने वाले का भरोसा हो
लेकिन फिर भी हुक्म नहीं चलता
पहले मुझे ये सब मालूम नहीं था
अब मैं धूप के पास चला जाता हूँ
अपने हिस्से की धूप सेंक लेता हूँ

Friday, September 20, 2013

मौसम की बयार से

मौसम की बयार से हो तुम भी तो
चाहे से अनचाहे भी तुम आ जाते हो

बारिश की रिमझिम से बरसाते हो
भीगे मौसम में ज़ज्बात भिगाते हो

कभी बन बहार ये मन हर्षा जाते हो
फिर भी पतझड़ ऐसा क्यों ले आते हो

सर्द भी और गर्म भी हवा तुम लाते हो
पर वसंत की खुशबू भी तो ले आते हो

हर मौसम मन की तरंग जगा जाते हो
तन मन की मादकता महका जाते हो

The Mirror

So you thought
I am just a silent nature
Devoid of my locale
The whispering flora
Awesome fragrance
Of the lovely flowers
Carried around by winds
You may have thought
I don't have a mirror
To look at the colors
The soothing beauties
To all eyes like you all
Standing by my side
This very beautiful lake
Also makes me look at
The shades of colors
The magnificence of
My own surroundings!

Leaf-fall!

Those of us who think
They are perennial
Are either mistaken
Or trying to pose different
Come the times of leaf-fall
Shed our leaves we all
Recognizing every bit
Of the cycles of nature
Through the weather
We do feel sad, momentarily
Yet come back to realize
The cycle of old and new
Destruction and construction
Death and life cycle
The mortality and the change
Paving new ways
A continuous cycle of
Seeing and believing
Liking and forgetting
The lives so inane
Just like you humans!

चार दिन

वही बातें गम की हैं ख़ुशी की भी कभी कहा करो
रोज़ कहते हो वही बातें कुछ तो नया कहा करो

राज़ रखते दफ़न तुम अपने सीने में हमेशा बस
कभी कुछ राज़ की बातें खुलने भी दिया तो करो

किया न फ़र्क़ जो उसने तो फ़र्क़ यूँ तुम क्यों करो
सताया अगर ज़माने ने तो सताया तुम क्यों करो

वक़्त को कोई कोसे क्यों वक़्त में रह लिया करो
दुनियाँ चार दिन ही सही कुछ तो जी लिया करो

दुश्वारियां

यहाँ की सारी बस्तियां उजड़ गईं
आसमान छूती इमारतें बन गईं

और ज़्यादा ऊँचा उठने की ख़ातिर
महत्वाकांक्षायें भी बढ़ती ही गईं

वक़्त के साथ चलते वक़्त न बचा
और वक़्त से ही दूरियाँ बढ़ती गईं

अब वक़्त ने वक़्त न दिया बाक़ी
वक़्त की ही देनदारियाँ बढती गईं

हमसफ़र अब हम से करते हैं गिले
गाहे बगाहे रह्गुजरियाँ बढती गईं

बड़ा आसान समझे थे ज़िन्दगी को
आसानियों से दुश्वारियां बढती गईं

Thursday, September 19, 2013

तुम को

क्या कहा तुमने अभी अभी
कोई आवाज़ सुनाई दी तुम को
शायद भ्रम होगा तुम्हारा
या फिर मैं ही भूल गया हूँगा
कुछ कहने की सोच तो रहा था
फिर ये भी तो सोचा था मैंने
कैसे कह पाऊंगा तुम को
चलो ये भी तो खूब रही
सुनाई देने का ज़िक्र किया है
पर आभास भर हुआ है तुम को
क्या कहना चाहता था मैं
नहीं बता सकता मैं तुम को
जानता हूँ जानना चाहते हो
मुझे ये भी लगता है
बताने की क्या बात है
ज़रूर होगा एहसास तुम को

Wednesday, September 18, 2013

बिडम्बना

समय को कोई नहीं बाँध पाया सुना है
लेकिन हर कोई समय से बंध गया है
समय-चक्र की भी अपनी बिडम्बना है

हर मूक हमेशा वाचाल होना चाहता है
पिता सन्तान के वाचालपन से त्रस्त है
संतान की वाक कौशल की बिडम्बना है

राष्ट्र व समाज समता सरलता चाहते हैं
राजनेता नौकरशाह सब सत्ता चाहते हैं
व्यक्ति की समाज के प्रति बिडम्बना है

न्यायशास्त्री न्याय और कानून चाहते हैं
अँधा कानून न्याय को प्रायः नकारता है
न्यादविदों की अपनी यही बिडम्बना है

साम्राज्यवाद नहीं है पर साम्राज्य चेष्टा है
बड़े राष्ट्रों की सर्वत्र ही बाज़ार पर पकड़ है
छोटे राष्ट्रों की बने रहने की बिडम्बना है

दार्शनिक जीवन और समाज को देखते हैं
वैज्ञानिक परिकल्पना में यथार्थ तलाशते हैं
जीवन के आयामों की अपनी बिडम्बना है

ख़ुद की खातिर

तुम्हारा वक़्त है इस वक़्त
पैंतरे तुम भी दिखा लो सब
जब कभी आयेगा हमारा वक़्त
ये सब कुछ हम भुला देंगे
तुम से ही जो हो जाते हम
तो ख़ुद को ही हम भुला देंगे
तुम हम को आज़मा लेना
हम ख़ुद को ही आजमाएंगे
जगत की रीत से हट कर
नज़र तुम को हम आएंगे
न ख़ातिर ये तुम्हारी सब
ख़ुद की ख़ातिर हम निभाएंगे

ये आवाज़ें

सताती थीं हमेशा बस जब
जिंदा मेरी अनकही आवाजें
इसी ताबूत में हैं अब बंद
मेरे साथ मेरी ये आवाज़ें
कही भी ना सुनी भी ना
किसी से हमने ये बातें
न समझे तुम न समझे हम
बस आती रहीं ये आवाज़ें
न कह पाए न कर पाए कुछ
पर संजो रखीं ये आवाज़ें
तुम्हारे मन भी गूंजती होंगी
अक़्सर शायद मेरी ये आवाज़ें

तुमर धन्यबाद..in Kumaoni

लोग यहाँ कहाँ कहाँ बटी ऐ बेर
हमर ले दुःख दर्द समझ गईं
तुम ले हमरे आदिम भया
मीडिया में आपण प्रचाराक लिजी
हमर दगड़ फोटू खिंचा गोछा
तुमर धन्यबाद छू

लोग निस्वार्थ भाव ल्हि बेर
यहाँ की की पूजे गईं
हमर बीच ऐ बेर रै ले गईं
आपुं नि खे बेर हमन खवा गईं
तुम ले ऐ बेर हमर बीच
आपण आदिम जै भया
हमर बणाईं नाश्ता खे गोछा
तुमर धन्यबाद छू

कई देशी-विदेशी संस्थाक लोग
कतिपय कम्पनीक लोग
हमर गाँवन गोद ल्हि बेर
हमर नन्तिनकि शिक्षा लिजी
समर्पण भाव लि बेर आईं
हमन आपण ऋणी बने गईं
तुम पें हमरे आदिम भया
उनर समर्पण में आपण हाथ बते गया
तुमर धन्यबाद छू

लोगनाक ह्रदय व्यथित छन
हमर दुःख देखि बेर आंसू टपकुनीं
हमरि आवाज़ में अपण सहयोग करनीं
हमर दुःख-दर्द सबन कें बतूँनी
तुम आपण आदिम भया
सब ठीक -ठाक छू के दिंछा
फेस बुक में बैठि बेर
हमरि फोटो शेयर करि दिंछा
तुमर धन्यबाद छू !

Wednesday, September 11, 2013

कागा

बस एक आँख मिली हो जिसको
वो कोयल के सुर में क्यों बोलेगा

तब कर्कश सम्बोधन काक करेगा
जब जब कोयल के सुर सुन लेगा

जन्मा हो जब काक योनि में जो
विवेक मनुज सा कहाँ से लायेगा

उसके स्वर के भी अपने से सुर हैं
जो समझेगा वो ही तो पहचानेगा

उसकी काँव-काँव में भी मधुर सुर
कोयल से तुलना जब कोई छोड़ेगा

पहचानो वो सुर मिसरी से बोलेगा
कानों में संगीत सम कागा बोलेगा

समझ सुरस सुर यूँ कोई पहचानेगा
बढ़ चढ़ फिर कागा भी रस घोलेगा

Saturday, September 7, 2013

Who Owns Up?


People busy supporting
Those who politicking
The wonderful agenda
Manifestos pouring
People get upbeat
Enthusiasms increasing
In principle for short term
Their role and value on up
Their feelings satisfying
This is a bigger game
Them actually not realizing
The populist slogans
The political wish-lists
Main issues of Economy
On the back seat remaining
Elections everyone eyeing
The large scale spending
By individuals, corporate, others
From unknown sources coming
People and their welfare
Not at stake at all
Money, power, parties do
All frenzies of politics
Then work non-transparently
Without accountability
Shams of performance
Hazy outputs and outcomes
Just the cover ups trying
Who owns up this all
People! Are you thinking?

ज़िन्दगी की तरह

ज़िन्दगी को जियो ज़िन्दगी की तरह ज़िन्दगी खुद-ब-खुद मुस्कुरायेगी
होंगी मायूसियाँ बेवज़ह दिल में अगर उम्र बन ज़िन्दगी मुँह चिढ़ायेगी

ज़िन्दगी रंग पल पल बदलती यहाँ कभी रोना तो कभी बस हँसाएगी
होंगे सदमे यहाँ साथ खुशियाँ दर-ब-दर ज़िन्दगी साथ लेकर भी आयेगी

जो भी भागेगा पीछे हमेशा यहाँ ज़िन्दगी बस मुक़म्मल मिल न पायेगी
इसके संग संग चलो फ़र्ज़ अपना करो इसकी रफ़्तार अपनी दिखायेगी

काम किस्मत से नहीं बनते हैं काम से ख़ुद को देखो खुदाई नज़र आयेगी
चाहे आज़मा देख लो मुख़्तसर बात है बन्दगी ज़िन्दगी का रुख करायेगी

सुर्खरू


तमन्ना मुख़्तसर है
मन में तसव्वुर है
जाने किस बात का
ये छाया सुरूर है

आँखें खोई सी हैं
ख़याल बहके से हैं
हवाओं में खुशबू है
कुछ तो होना ज़रूर है

वक़्त थम गया है
समां बदल रहा है
मन बेक़रार है
और ये दिल मगरूर है

चाहतों के सिलसिले से
फरियाद-ए-मोहब्बत है
इसी माहौल में अपना
मिलन अब सुर्खरू है

Monday, September 2, 2013

बस अंतहीन / The Endless

सत्य का रूप है यह भी
चाहे या अनचाहे भी सदा
जीवन की गति सी बढ़ती
एक अक्षुण्ण पिपाषा ऐसी
स्वप्नवत सी प्रतीत होती
एक विहंगम दृश्य देख कर
तृष्णा वितृष्णा में समाती
देख कर यहाँ रहस्योदघाटन
समय व इसकी गतिशीलता
और इसके विभिन्न आयाम
जैसे एक बस अंतहीन उड़ान
एक नित्य अनंत आकाशगंगा
A form of truth this too is
Knowingly or unknowingly always
Progressing like movement of lives
An insatiable thirst such
Sounding like the pleasant dream
After seeing the bird's eye view
Aspirations soluble in dis-aspiration
Observing the revelation of mystery
Time and it's associated dynamics
And it's facets that are so many
As if being and ever unending flight
An eternal infinite milky-way!