Wednesday, April 30, 2014

नज़र का असर

जाने क्यों नहीं दीखते तुम्हें
रंग हैं अब भी सब मौसम में
फ़िज़ा का मस्त आलम है
बहारों के ख़ूबसूरत मौसम में
पुरवाइयाँ रोज़ चलती हैं
अब भी गर्मियों की रात में
सर्द हवाओं के गर्म एहसास हैं
हर बार सर्दियों के मौसम में
वो भीगी-भीगी रौशनी भी है
आज भी बरसात के मौसम में
बहुत कुछ बाक़ी है हर तरफ़
आज भी दुनियां के मौसम में
बस नज़र का असर भर है
ज़ज़्बात ग़ुम हैं हर मौसम में

मौसम बदल गया

अब चुनाव के मौसम
वैमनस्य बढ़ाने से बनते हैं
लोगों के विचार भी यहाँ
औरों की बातों से बनते हैं
प्रगति की चर्चा नहीं
हर बात पर विवाद हैं
अब मुल्क़ की नहीं
नेताओं की अँधभक्ति है
राष्ट्र-हित की बात अब
दल-हित की बात है
किसी की बात सुनना
अब बर्दाश्त से बाहर है
लोगों का मिज़ाज़ ही
मानो बदल गया है
उनकी चेतना जड़-वत है
एक दिन के राज़ा हैं
और बस दूसरे ही दिन
स्वयं समझ जाते हैं
और कुछ नहीं, बस
मौसम बदल गया है
आसमान-ज़मीन वही है
'बादल' नए आ गए हैं
जो अब धूप के मित्र हैं
बरसना नहीं जानते
लेकिन फिर भी
वाष्प उड़ा ले जाते हैं


Tuesday, April 29, 2014

सवाल-जबाब

बहुत मुलाक़ातें हुईं
लेकिन उस एक
मुलाक़ात के क्या कहने
जब हम हम थे तुम तुम थे
तुम्हारे अपने सपने थे
हमारे भी अपने थे
हमारे अपने अपने सवाल थे
जबाब किसी को नहीं मिले थे
न लब खुले थे न गुफ्तगू हुई
खामोशियों को अपनी ज़ुबाँ थी
कुछ तुम समझ रहे थे
कुछ हम समझ रहे थे
बग़ैर रास्ते के बियाबान में
हम सफर कर रहे थे
आखिर रास्ते के बिना भी
हमने चल पड़ने का
सोच लिया था
अब सवाल नहीं थे
जबाब खुद समझ लिए थे
कुछ जबाब बिन सवालों के हैं
कुछ सवालों के जबाब नहीं होते
ये हम दोनों समझ रहे थे

Sunday, April 27, 2014

विहग-सुर

विहग-सुर सा मीठा बोल रहे थे वो
जाने कौन उड़ान की सोच रहे थे वो
खद्योत का प्रकाश पर्याप्त मेरे लिए
न जाने क्यों चाँद की सोच रहे थे वो
केवल गीत सुरीला भाता है मुझको
क्यों वाद्य यंत्र सब खोज रहे थे वो
मेरी निजता मेरी संपत्ति भान उन्हें
जाने क्यों सब और तलाशते थे वो
कही छुपा था दावानल सा अंदर मेरे
जाने क्यों अंदर तक मेरे जाते थे वो
सपना अपना बस सपना ही था मेरा
क्यों उसमें सत्य व अर्थ खोजते वो
है ज्ञान मुझे प्रतिपल पल पल का
क्यों इसको मेरा अज्ञान मानते वो
स्वीकार मुझे हर सत्य सनातन था
क्यों ये भी मेरा प्रतिकार मानते वो

Saturday, April 26, 2014

In-sights

I had gone thus far
Yet I could return
For my love of old
My memories of Gold
The new is enameled
But old was real Gold
The paths can be walked
Not forward or sideways
But also sure backwards
The choices do exist
The will shall prevail
Circumstances overridden
Nothing is nearby or far
Everyday new beginnings
Life encounters confusions
Fluid are the reasons
What prevails happens
In-sights might incite
But insight can prevail


Thursday, April 24, 2014

इतने सवाल क्यों

सूरज क्यों कभी करवट नहीं बदलता
चाँद दिन में ही क्यों रोज़ सो जाता है
जमीन इतनी ऊबड़ खाबड़ क्यों होती है
ये आसमान क्यों नहीं कभी घूमता है
जब सूरज और चाँद आ सकते हैं तो
सितारे नज़दीक क्यों नहीं आ जाते हैं
आदमी के पँख क्यों नहीं बनाये जाते
पँछी कैसे ऐसे हवा में उड़ते रहते हैं
समंदर कोयों नहीं दरिया में मिलते
रेत का पानी सब कहाँ चला जाता है
सूरज चाँद जब घूमते दिखाई देते हैं
तो पृथ्वी घूमती है लोग क्यों कहते हैं
जब सब कुछ भगवान ही करवाते हैं
तो लोग तेरा-मेरा कह क्यों झगड़ते हैं
कुछ सवाल जो कभी ख़त्म नहीं होते
ये बच्चे इतने सवाल क्यों करते हैं

मन में क्या

किसी रोज़ हम भी
कह देंगे इस जग से
मलिन मन से सही
लेकिन अपनी बात
स्पष्ट शब्दों में ही
हमने रेत को सींचा
ये किसी ने नहीं देखा
हम ने देखा है ये सब
या रेत को मालूम है
मालूम है हम को भी
समंदर नहीं है हम
पर सूखे दरिया नहीं
ये भी हमें भान है
कृतघ्नता दूर रखी
अपना कर्तव्य ज्ञान है
बहुत नहीं माँगा हम ने
पर बहुत कुछ दिया है
जीना जानते हैं हम
इसीलिए नहीं मानते
जीवन कोई सजा है
तुम प्रतीक्षा करना
हमारे कह देने की
मन में क्या रखा है

Wednesday, April 23, 2014

मनभेद


न तुम कुछ कह रहे थे
न मैंने कोई शब्द कहा
न पास कोई आवाज़ थी
फिर कहाँ से हो गई
एक नई ग़लतफ़हमी
वो दिन भी तो ऐसे ही थे
जब हम समझ जाते थे
बिना किसी आवाज़ के
प्यार के वो सब बोल
जब विश्वास था
जो भी कहा होगा
या अनकहा भी हो
कल्याणकारी ही था
उभयपक्ष के लिए
कोई दरार दिखती नहीं
फिर कहाँ मनभेद हुआ
ये तुम भी सोच रहे थे
और मैं भी सोच रहा था

Tuesday, April 22, 2014

ख़फ़ा ख़फ़ा

झेलनी पड़ती हैं शायद सब को
तोहमतें भी यहाँ अक़्सर
अपने हिस्से की मोहब्बत की
हमें सरोकार नहीं कोई
फितरत या नीयत से
तोहमतें लगाने वालों की
हमें कोई शक़ नहीं है
हमारी फितरत या नीयत पर
बात आज की हो या कल की
एक रोज़ शायद समझेंगे लोग
हम को भी हमारी सीरत को
रौशनी में हक़ीक़त की
कोई नासमझ चाहे न समझे
हम चलते रहेंगे राह में
अपनी अज़ीज़ मोहब्बत की
आज वो ख़फ़ा ख़फ़ा सही
आएगी उस रोज़ सदा
जब आवाज सुनेंगे अंदर की

कभी कभी

जीवन की गुत्थी
जितनी सुलझाना चाही
सुलझ नहीं पाती
और उलझने लगती है
कभी कभी
सब भूल जाना चाहती हूँ
लेकिन जितना भूलना चाहूँ
भूल नहीं पाती
कभी कभी
जीवन के रास्ते समझना
इतना सरल नहीं है
एहसास होता है मुझे भी
कभी कभी
उलझा छोड़ देना भी
हल नहीं लगता
इसलिए भी सुलझाती हूँ
कभी कभी
जीवन बेरंग बेसुरा लगता है
ये जानती हूँ मैं भी
पर संजीदा हो जाती हूँ
कभी कभी

Sunday, April 20, 2014

Human Minds are Weird

Human minds are weird and often behave randomly. One hardly knows what is going to come by next. Howsoever hard one may try being logical and follow set patterns or self acquired, self aspired way to deal with the mind, it will slip through all methods and intents to control. Only pattern about the mind and its patterns is being random.

The sum total of the activities, experiences and imprints in the mind is the manifestation of its behavioral ways! I would not hesitate in calling the weird ways of mind as dangerous, illogical and fickle. It is so because the mindset and thinking is the core activity coming out of the mind, that make brainwaves travel in the unspecified directions often.

Having said the above, I am not trying the enter the terrains of the complicated anatomy and functioning the brain and psychological aspects of the mind. I am simply trying to make me understand the nuances of mind and my impressions about. Don't even think that i am trying to sell my impression to your understanding.

I have observed people making or breaking of their lives and relations unknowingly as an ever unwanted situation, merely because of the weird ways of minds; often in the moments of heat! The most logical mind as we think stops thinking rationally and logically is such situations. Don't try to control the mind or the emotions; just learn to live with those, you would be fine. Amen!


Monday, April 14, 2014

बहुत देर

ईमान जब डोलने लगते हैं
यक़ीन ख़ुद कमज़ोर होते हैं
आदमी आईने से डरते हैं
लेकिन जानते हैं फिर भी
आखिर कब तक झुठलाएंगे
अपने अंदर की आवाज़ को
उम्र जब ढलने लगती है
लोगों को नए सवाल सताते हैं
लोग अंदर ही अपने आप से
चिढ़ने और कुढ़ने लगते हैं
अपने ही विवेक पर फिर
बात बात में रोने लगते हैं
मज़बूरन आईना देख कर
सच की अनुभूति होती है
फिर ईमानदारी याद आती है
मगर तब बहुत देर हो जाती है

चक्रवत

दिन की धूप भी
जब धूल भरी आँधी
और गर्म हवा के थपेड़े भी
घनी बरसात के मौसम में
बारिश का प्रकोप
हेमंत और शिशिर के
सर्द मौसम की ठण्ड
सब सह लेते हैं हम
तुम्हारे साथ
बस कभी कभी
सहम जाते हैं हम
तुम्हारे अपने ही
मौसम के मिज़ाज़ से
लेकिन चक्रवत है
मौसम की फितरत भी
इसीलिए संभल जाते हैं

Saturday, April 12, 2014

पंछियों के पँख में

पंछियों के पँख में बैठ के आई
निंदिया आई निंदिया आई
मेरे बिट्टू की निंदिया आई
निंदिया आई निंदिया आई

बादलों के झूले में बैठ के आई
झूला झुला के फिर पास आई
निंदिया आई निंदिया आई

सुबह से शाम के सफर में थक के आई
किधर से आई इधर को आई
निंदिया आई निंदिया आई

पंछियों के साथ साथ उड़ के आई
जाने कौन कौन देश घूम के आई
निंदिया आई निंदिया आई

बिट्टू मेरा सोने लगा सपनों की दुनियाँ में खोने लगा
सुबह से शाम के सफर में थक के आई
निंदिया आई निंदिया आई


प्रेम की गली

सुबह ये कुछ धुली धुली
ये हवा भी है महक चली
जागी है उम्मीद फिर नई
मुस्कुराई सी मन की कली

अरमान फिर बहक रहे
अंदाज़ भी महक रहे
चाहत की ओट से चली
डगर ये कुछ भली भली

रौशनी से धुल गया समां
मौसम ये बस रवाँ रवाँ
लेके मोहब्बत का कारवाँ
बयार फिर है ये चली

गुलों के रंग हैं नए
गगन भी साफ़ साफ़ है
गुलज़ार हैं चमन यहाँ
बहार हर गली गली

दिल है मन से पूछता
ये कौन सी हवा चली
मुस्कुराहटों के राज़ क्या
क्या प्रेम की गली मिली


Friday, April 11, 2014

मोहब्बत के अफ़साने

उफ़ क्या मज़ा था
इंतज़ार में उन दिनों
सोचा था बातें होंगी
मोहब्बत का आलम होगा
मुलाक़ात भी क्या हुई
मानो अल्फ़ाज़ गुम थे
न हम हम थे न तुम तुम थे
चन्द मुलकातों में फिर
लफ़्ज़ों ने साथ निभाया
दिलों ने मोहब्बत का गीत गाया
और आखिरकार
मोहब्बत अफ़साना बन गई
हम हम हो गए थे
और तुम तुम रह गए थे
फिर नदी के दो किनारों से
हम दोनों रह गए
लेकिन ग़म नहीं कोई
आज भी तन्हाइयों में हम
मोहब्बत के गीत गाते हैं
मोहब्बत के अफ़साने को
अपने अपने तरीके से
कभी कभी दोहराते हैं

Wednesday, April 9, 2014

अपने रहगुजर

हमसाया था कितने साल हो गए
वक़्त के रुखसत के ख़त आ गए
आवाज़ करने वाले मौन हो गए
खामोशियों के सुर गहरे हो गए
ज़िन्दगी के पल थमे लगते गए
मग़र अपनी रफ़्तार चलते गए
रफ्ता रफ्ता दिन कम होते गए
हमारी बेचैनियों को बढ़ाते गए
कल से कल तक दो दिन हो गए
आज़ के पल जाने कहाँ खो गए
हमसफ़र जुदा राह को चल दिए
हम अपने रहगुजर में चल दिए

Tuesday, April 8, 2014

Life After Death

I am alive and kicking
Through length and breadth
I can hear the heartbeats
The sound of the breaths
I do start looking at
My counts of the death
I don't share the view on
The life after death
To me, my whole existence
Only once is the truth
Yet I won't join the issue
Nor will bite my teeth
It is futile to discuss
When I couldn't avoid death
When I am clinically dead
Then I shall deal with it


No Love Lost

He thought
I was too dumb
To understand him
I thought
He is naive, arrogant
I yelled at him
He said
I don't care for him
Undermine him
I said
I did, but
He need to understand
Without prejudice
He concluded
I was argumentative
Not point arguing
I concluded
He won't understand
He is incorrigible
We both realized
We overreacted
There is no love lost!

With All Odds

She was concentrating
On her work of laborer
I asked her generally
If she disliked school
Or like to go to school
She looked at my face
Through questioning eyes
With a very feeble smile
On her glowing face were
Patches of mud and dust
Her untold question evoked
I would never understand
The plight in the lives
Of people of likes of hers
And their compelling reasons
Of making an honorable living
With all odds one and sundry
Way beyond my imagination


Monday, April 7, 2014

चुनाव का व्यापार

जन-भावनाओं के सौदागर
करते हैं यहाँ व्यापार
जन-भावनाओं का
तरह तरह के स्वाँग दिखा
लोक-लुभावन नारों को
सियासी तराज़ू में तौलकर
बड़े सस्ते बेच देते हैं
मीठी परत और वर्क़ को
चुनावी चाशनी में डुबो
और लोग भी तो
आ जाते हैं मीठी बातों में
फिर रख देते हैं गिरवी
अपने अधिकार सभी
उन्हीं सौदागरों के पास
हर बार हर चुनाव में
फिर पाँच साल तक
सौदागरों के ग्राहक बन
ख़ुद को कोसते रहते हैं
एक निरंतर चक्र सा
क्यों न होगा फिर भला
चुनाव का व्यापार

कोलाहल

शोर भरी इस नगरी में है
चारों ओर भरा कोलाहल
घर के अंदर घर के बाहर
बस कोलाहल ही कोलाहल

बस्ती बस्ती दिशा दिशा में
हर पल होता है कोलाहल
यहाँ तेरे मेरे सबके अंदर
बस कोलाहल ही कोलाहल

कोई भी है बात न सुनता
उसका शोर भरा कोलाहल
मन के अंदर तन के अंदर
बस कोलाहल ही कोलाहल

Sunday, April 6, 2014

ओस की बूँद

ओस की बूँद सी हैं
ज़िन्दगी की खुशियाँ
अँधेरे में आ जाती हैं
न जाने कब चुपचाप
बिना कोई दस्तक दिए
बस चमकती दिखती हैं
सुबह के उजाले में
तेज़ धूप की गर्मी में
फिर गायब हो जाती हैं
वापस आ जाने के लिए
इनका एहसास भी
घर से निकल कर है
घर के अँधेरे में नहीं
मन के उजाले में
इनकी चमक बढ़ कर
दोगुनी हो जाती है
उजालों के परावर्तन से

Saturday, April 5, 2014

समर शेष है~ रामधारी सिंह दिनकर (१९०८-१९७४)



ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो

किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?

किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?



कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।



मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,

माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,

सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?



समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,

और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।





समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।

जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।

धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,

अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।

पथरीली,ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।

समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।



समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,

खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।

गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह कालविचरें

अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!

सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।

बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

Friday, April 4, 2014

वो भी हम भी

कुछ वो जानना चाहते थे शायद हमसे
कुछ हम कहना चाहते थे अपनी उनसे

उन्होंने गुफ्तगू में अपनी बात जान ली
हमने जानबूझ कर अपनी बात कह दी

वो सोचते होंगे हमने कुछ न पूछा उनसे
हम सोच रहे हैं कुछ नहीं छुपा है हमसे

वो भी अपनी अक्ल पर नाज़ करते होंगे
हम भी अपनी जीत का जश्न मनायेंगे

जब कभी होंगी खुलकर बातें किसी रोज़
वो भी हम भी खुलकर खूब मुस्कुराएंगे

Tuesday, April 1, 2014

Dark Alley

Thoughts keep poring in here
Some are sensible some weird
All thinking own wisdom great
Hence the differences crop in
When the consensus is nearby
Many start popping in suddenly
With new thoughts or measures
Without willing to compromise
The core issues are forgotten
And subsidiaries start reigning
Arrogance with personal vendetta
Make way for keeping the reason
Down the dark alley of mind


और मैं भी

तलाशता हूँ मैं
न जाने क्यों
मेरा ही व्यक्तित्व
मुझ में ही
शायद इधर
मेरी स्वयं से
शिकायतें अपनी
अब बढ़ने लगी हैं
या फिर यहाँ
मेरे आस पास
लोग करते हैं
परिहास मेरा
यूँ भी लोग अनभिज्ञ हैं
अपने व्यक्तित्व से
शायद इसीलिए
मुझमें खोट ढूंढते हैं
और मैं भी
इन्हें तलाशने लगता हूँ