Wednesday, December 31, 2014

बहाना सही

बहाना सही
नए साल का
बढ़े मिठास
कुछ रिश्तों में
बढ़े शान्ति
चारों ओर
हर्षोल्लास का
अनुभव हो
सुखद सबका
सबके साथ
व्यवहार हो
जो मिले उसमें
संतोष हो
शिकायत हो
कोई नहीं
सब तरफ़
सद्भाव हो
प्रगति के साथ
मानवता का
विकास हो

Sunday, December 28, 2014

त्यार शहर किलै ऊँ (Kumaoni)

त्यार शहर मैं नि उनूं, मैं पहाड़े भली छूं
रंग चंगीलो पहाड़ मेरो; त्यार शहर किलै ऊँ

शहर का लोग कुनी, कचकचाट करने रूनी
भ्यार भला बणी रूनी, घरवाली केँ खूब सतूनी
दफ्तरन में काम नि करी, औरन कें खूब मैक्यूनी
यहाँ चेली बटिनक चली रुं, त्यार शहर किलै ऊँ

आपण आपण बाट हिटण, आपण आपण दोस्त छन
आपण बोली क्वे नई बोलन, अंग्रेजीक खुट तोड़नी
घर में ले सब आपण आपण, गैज़ेटन में बिज़ी रुं
यहाँ फसक-फराल हुनी, त्यार शहर किलै ऊँ

इज-बाबू आम-बड़बाज्यू, आपण दगड क्वे नई धरन
मुख में अलग भितर और, एक दुसरा नान समझनी
नानतिन ले अंग्रेजी गईं, हम जसाना क्वे नई पूछन
यहाँ भितर-भ्यार एक छन, त्यार शहर किलै ऊँ


लाशों के ढेर से अलग

अनिश्चय व अनिर्णय
एकमात्र विकल्प हैं
इंसानों की खाल में
घूम रहे भेड़िये हैं यहाँ
आतंक के चलते हुए
बदहाल है सुरक्षा सर्वत्र
मारे जाते हैं लोग यहाँ
रोज़ जानवरों की भाँति
कभी कहीं तो कहीं और
कोई डरे हुए मेमने से
कातर नज़र से देखते
छोटे-छोटे बच्चे यहाँ
किंकर्तव्यविमूढ़ हैं
भाग्य के सहारे चलते
जीवन के समस्त रंग
आखित कब तक चलेंगे
दुस्साहस का विकल्प
सदैव साहस नहीं शायद
लेकिन सब लोग मिल
सक्रिय पहल कर सकते हैं
शांति व् सद्भाव के निमित्त
सबके भविष्य की खातिर
कोई तो निकल सकता है
मध्यमार्ग ही सही
लाशों के ढेर से अलग !

Saturday, December 27, 2014

सब्र बेसब्र है

सब्र का इम्तहान लेती
बेताबियाँ थीं बड़ी कभी
हर चीज की जल्दी बड़ी
भीड़ में बसर थी ज़िन्दगी
वक़्त की नसीहतों के साथ
बस थम सी गई ज़िन्दगी
अब सब्र बेसब्र है अक्सर
सब शांत है अंदर बाहर
जो मिला जैसे भी मिला
अब नहीं कोई गिला
भीड़ का साथ छोड़ अब
तन्हाईयाँ रास आने लगीं
गुमसुम नहीं फिर भी मगर
यूँ मुस्कुराती ज़िन्दगी

Friday, December 26, 2014

अँधियारा मन मौसम

अँधियारे से मन मौसम थे
मन को ना आँखों को भाये
पहले ही से था मन में कुछ
सघन कुहासा सा छाया
अब बाहर मौसम में भी
सुबह-शाम है ऐसा छाया
किरण ज्ञान-चक्षु से मन का
अँधियारा है बना उजियारा
सूर्य-रश्मि से हुआ पराजित
मौसम का अब सारा कोहरा
कुछ मन से कुछ आँखों से
लगने लगा सुखद ये नज़ारा

Tuesday, December 23, 2014

मिल कर बदलेंगे

अब सरकारें नहीं
लोग रास्ते बना रहे हैं
प्रयास किसी के भी हों
सब लोग समझ रहे हैं
कोई लाभ नहीं होगा
अनर्थक विवेचना का
किसी भी एक या विशेष
व्यक्ति या संस्था की
लोग स्वयं जानते हैं
ये शहर बदल रहा है
लोगों की सोच के साथ
ये देश बदल रहा है
फिर जाने क्यों यहाँ
कभी कभी लगता है
कुछ नहीं बदल रहा है
उम्मीद फिर भी ज़िंदा है
सब मिल कर बदलेंगे

Monday, December 22, 2014

शायद इसीलिए

हरेक को शिक़ायत है
कही समाज व देश से
कभी बेगानों से
कहीँ अपनों से है
थोड़ी रोज़गार की
कई परिवार की
प्रायः सम्बन्धों से
कुछ व्यवस्था से है
नज़दीक से देखूं तो
ऐसे भी लोग कई हैं
जिनको यहाँ खुद से
अपनी ही शिकायत है
इस सब से लगता है
शायद इसीलिए ही
जी रहे हैं लोग क्यों कि
साँस चल रही है!


Saturday, December 20, 2014

सुबह के रंग

सुबह के ये रंग बड़े मोहक हैं
हर पल नए दीखते आकाश में
जगा से रहे हैं संसार भर को
पंछी अपनी अपनी बोली में
कुछ खुसर पुसर सी करती हैं
तितलियाँ फूलों के कान में
धूप और बादलों की ठिठोली
क्या लहराती उमंग सागर में
यत्र-तत्र विद्यमान आँखें गढ़ाए
मछुवारे शिकार की तलाश में
एक एक पल का अपना क्रम
सब कुछ चलता एक लय में
प्रकृति के भी नियम हैं अपने
शायद लोग कुछ सीखें इनमें

Friday, December 19, 2014

जज़्बे की बात

कदम रुके भी जहाँ हम चलते चले गए
हौसलों को मंज़िल का हवाला देते गए
दूर है मंज़िल ये एहसास तो हम को है
होगा नज़ारा एक दिन ये विश्वास भी है
कारवाँ अपने-अपने मंज़िलें भी अपनी
होंगे हम कामयाब तज़ुर्बा साथ तो है
नई डगर चल नई मंज़िल शायद आये
ये न सही वो सही भरोसे की बात तो है
लड़खड़ाते कदम बन सकते हैं ताक़त
और कुछ नहीं बस जज़्बे की बात है


Sunday, December 14, 2014

स्वतोन्मुख

सर्दियों के मौसम सी
बढ़ती रिश्तों में ठंडक
जाने क्यों नहीं बदलती
बदलते मौसम की तरह
वसंत और गर्मी का
मानो कोई असर नहीं
पहले तो ऐसा न था
लोग प्रायः भूलते थे
बस कुछ ही पलों में
कड़वाहट और ठंडक
अब सब बदल गया है
स्थिरता का ज़माना है
तो फिर ऐसा क्यों है
गर्मी में असर कम क्यों
शायद अपेक्षा अधिक हैं
वो भी एकतरफा सी
स्वार्थ-सिद्धि के द्योतक
रिश्ते भी बन गए हैं
हमारी स्वतोन्मुख होती
मानसिकता के प्रतीक

Saturday, December 13, 2014

आँख का चश्मा

तुमने स्वयं किया है
सत्य से परहेज़ शायद
फिर तुम्हारा मनोनय
क्यों न होगा आधारित
असत्य, आंशिक सत्य से
तुम्हारी आँख का चश्मा
तुम्हें भ्रमित करता है
शायद सत्य दिखाई दे
आँख का चश्मा उतार दो
देख लो हर रंग यहाँ
हरा या गुलाबी नहीं है
थोड़ा गहराई से देखो तो
ये सूरज की रौशनी है
जो सब को देती है रंग
सबकी फितरत परख
परावर्तित कर रंग को
वरना सब काला है

Matter of Hearts

Passing through here
The galaxies so many
Witnessing and living
Amorphous existence
We all gathered here
To mark and pass time
Thinking and talking
Spend time own ways
Invent and reinvent
Yet questions remain
Mind boggling mystery
Puzzle has no solution
Acceptable to each one
The matters of heart
Do have concessions
Different perceptions
Acceptable approaches
Varied of the each one
Whole of this cosmos
Is perhaps nothing
But matter of hearts
As you take it yours

प्रासंगिक नहीं रहा

मेरे भी कुछ मित्र इधर
करते हैं सवाल मुझसे
कि मैं भी अब शायद
नहीं करता हूँ प्रायः
पुरज़ोर विरोध अब
व्यक्तियों, व्यवस्था का
पहले की तरह
मैं स्वयं भी स्वयं से
करता हूँ ये प्रश्न
ऐसा नहीं है कि
बदल गया हूँ मैं
कभी लगता है लेकिन
प्रासंगिक नहीं रहा अब
मेरा तरीका और सोच
फिर भी, सिद्धांततः
मेरा विरोध जारी है
व्यव्हार में भी
मैंने भी बदले हैं
अपने तौर तरीके


कोई अज्ञात सा

मेरा परिचय
मानो इतना सा
मैं भी तारा सा
एक आकाश का
चमका तो दिखा
वरना अज्ञात सा
अनगिनत हैं यहाँ
लोग मेरे जैसे
कोई जाना-पहचाना
कोई अज्ञात सा
यूँ भी मैंने स्वयं
देखा है पाया है
परिचय अब तक
अपने इर्द-गिर्द के
छोटे से संसार का
कोई कुछ भी कह ले
वो भी मेरे सरीखा
हर कोई अज्ञात सा

हमारे वज़ूद पर

रूबरू हैं हम से आज
हमारी अपनी शख्सियत
हमारे आस-पास के
पूछ रही हैं सवाल
हमारे ही बारे में
कभी इंसानियत के
और कभी इंसानों के
शायद अब भी कहीं
हमें इंसान समझ कर
नहीं हैं जबाब हमारे पास
उनके सवालों के
हमने कभी सोचा नहीं
ऐसी नज़र से
हमारे आस-पास पर
शायद सवाल हम पर उठे हैं
या हमारी इंसानियत पर
हमारे वज़ूद पर

मंज़र बदल गया

मनमोहक राग सुन
आनन्दित थे सभी
साथ में सुरीले साज़
बेहतर बना रहे थे
मधुर कंठ से निकले
वाणी के सुरों को
निरन्तर गड़गड़ाते
तालियों के स्वर भी
मानो थमते न थे
अब समां बदला है
स्वर बेसुरे लगते हैं
साज़ नदारद हैं
तालियों की जगह
तिरस्कार के स्वर हैं
सुरों के साथ प्रायः
ताल नहीं मिल पाई
या शायद बदली है
लोगों की मानसिकता
मंज़र बदल गया है

Friday, December 12, 2014

अवशेष मात्र

बड़े गर्व से कहते थे हम
श्रेष्ठ विचार और सभ्यता
हमारी थाती रही है सदैव
दृष्टान्त दिया करते थे
इतिहास के पन्नों से
लेकिन अब चर्चा में है
बहुत कुछ बदला है यहाँ
मानो आयाम ही बदल गए
जीवन और संस्कृति के
चारों ओर कोलाहल है
अनाचार, दुराचार का
स्वार्थ के नग्न नृत्य का
मानो कि यहाँ केवल
अवशेष मात्र रह गए हैं
सभ्यता और संस्कृति के

Thursday, December 11, 2014

Peace at Self

We often lose peace
Of mind and behavior
With several causes
Provocations around
Induced by the people
Whatever be reasons
Blasts in our thoughts
Exacerbating through
Cause, consequences
Perceived or of fears
Temporary and unreal
All it requires to have
To be at peace in self
Bed time sober minds
Comforting assurance
From self and others
And on an aggregate
Serenity of thoughts
Controlled by ourselves
Come any provocations

Tuesday, December 9, 2014

Fix Your Mess

When no one is there
And you need any help
You are the best person
Who is a reliable help
So many ways yourself
To deal with problems
Emotional and actual
Coping with situation
To the extent possible
Taking self out of it
Then you can realize
Some help comes to you
From other quarters
Not sharing the bulk
Try just chipping in
Sure are the exceptions
It might be different
In compelling situation
Yet overall it's true
You need to sort out
Problems and the mess
In your life yourself

Sunday, December 7, 2014

किम्वदन्ति

समय व स्वार्थ बदल देते हैं
रिश्ते, अभिप्राय, प्रयोजन
गतिशील से होते सम्बन्ध
व्याख्या उभयरूप में सही
मेरे नज़दीकी मित्र, प्रियजन
कल ऐसा आदर भाव रखते थे
मानो मेरे प्रियजन सभी हों
समय के साथ मैं नहीं बदला
वो लोग शायद आगे बढ़ गए
आज लोग अब चर्चा करते हैं
मेरे बारे में सवाल करते हैं
अपने कारण व तरीकों से
उद्धरण देने का प्रयास भी
मेरे न बदलने के विषय में
उनके व्यवहार से लगता है
मानो कोई किम्वदन्ति हूँ मैं

Saturday, December 6, 2014

Nothing is Your or Mine

Some days were enthusiastic
Few days we spent worrying
More days brought insecurity
Many days we plan in security
In chosen days we lived amply
Living we understood so well
Life we haven't yet learnt simply
Time clock keeps ticking ahead
We still look for time to sort it out
In the end both life and time elude
Something as nothing to conclude
Moments lead to spending all time
In the end nothing is your or mine

Thursday, December 4, 2014

इनकी दृष्टि में

उकता गया हूँ अब
इन व्यवस्थाओं से
जहाँ मिलती है पनाह
कामचोरों को हमेशा
भ्रष्ट और निकम्मों से
इनके जीवन के आयाम
सदाचार की आलोचना
दुराचारियों की जय
ये बहुमत में होकर
एकस्वर में गाते हैं राग
अपने व्यवहारिक होने के
सब में ही खोट होने के
भरपूर जीवन आनंद के
इनके भी सिद्धांत हैं
घिनौने और खोखले
हर अच्छाई से टकराते
इनकी दृष्टि में बस
अनैतिक की नैतिक हैं
बाकी सब मूढ़ हैं
ये शायद सफल भी हैं
लेकिन केवल
इनकी दृष्टि में

मूकदर्शक

अजीब बात है !
न जाने कहाँ हैं यहाँ
संवेदनायें लोगों की
जैसे कि गुजरता हूँ
एक पत्थर के शहर में
बहरों की गलियों से
जहाँ की एक प्रथा है
फ़रियाद करने की
सिर्फ़ अपने लिए
वो भी कातर स्वर में
औरों के लिए ये लोग
निभाते हैं परम्परा
मूकदर्शक होने की
या फिर हमेशा
देखी-अनदेखी करने की
बिना इस भान के
कि वे सहभागी बनते हैं
अन्याय, जुर्म, अपराध में
अनजाने में नहीं
बिलकुल जान बूझकर

Saturday, November 29, 2014

नई फ़िज़ा

नए-नए से ख्वाबों से
महक रही है ज़िन्दगी
ख़ुशी के यूँ एहसास से
चहक रही है ज़िन्दगी
बड़े की चाह में यहाँ
बहक रही है ज़िन्दगी
कुछ और की तलाश में
भटक रही है ज़िन्दगी
नई दिशा और सोच से
पलट रही है ज़िन्दगी
हरएक तरफ हरेक घर
बदल रही है ज़िन्दगी
नई फ़िज़ा नई डगर पे
चल रही है ज़िन्दगी

प्यार फ़लसफ़ा नहीं

कभी-कभी कड़वे घूँट दवा मान पी लेते हैं
प्यार की चाशनी में सब मीठा कर लेते हैं
मर्ज़ को खुद दवा का स्वरुप जान लेते हैं
मर्ज़ का इलाज़ कुछ इस तरह कर लेते हैं
प्यार की तकरार का आभास लिए जीते हैं
बेचैनियों में प्यार की यूँ चैन लिए रहते हैं
मीठे से दर्द का सा एहसास लिए फिरते हैं
हम प्यार से लबरेज़ अन्दाज़ लिए रहते हैं
ज़िन्दगी की अँगड़ाइयों को पहचान लेते हैं
प्यार फ़लसफ़ा नहीं हक़ीक़त मान लेते हैं

Sunday, November 23, 2014

नवचेतन

फिर मिटेगा सघन तम
महकेगा नवचेतन मन
छायेगा उजियारा इतना
फिर से नव प्रभात बन
झोंके बन सुरभित पवन
आयेंगे फिर मेरे आँगन
छोटी सी ये बगिया मेरी
खिल उठेगी ज्यों उपवन
आशायें आकाँक्षा मिलकर
सबरस बरसेंगे मेरे भी मन
अहा सुहाना होगा कितना
दृष्य मनोहर सुन्दर बन


Saturday, November 22, 2014

आदमी कौन !

स्वयं के लिए
भरमाया औरों को
अवश्यमेव

शून्य में था वो
न किसी को खबर
अनजाना था

लोग ले आये
ज़मीन पर उसे
आसमान से

उसके नाम
सब सम्भव हुआ
मेरे खिलाफ़

अब बाशिंदा
ख़ुदा ज़मीन का है
आदमी कौन !


Monday, November 17, 2014

मैं भी प्रतिभागी हूँ

स्वयं पर अन्याय का
पूरा विरोध नहीं करता
चुप रहता हूँ मैं

किसी और पर होता
अन्याय देख कर भी
चुप रहता हूँ मैं

देश की समस्या को
अपनी नहीं समझ कर
चुप रहता हूँ मैं

समाज के अन्यायी लोगों से
प्रायः डर सा जाता हूँ
चुप रहता हूँ मैं

कमज़ोर पर ज़ुल्म देख
कन्नी काट लेता हूँ
चुप रहता हूँ मैं

सारी समस्याओं का
मैं भी प्रतिभागी हूँ क्यों कि
चुप रहता हूँ मैं


बहक जाता हूँ मैं

समझता हूँ
तुम्हारी भी विवशता
लेकिन अपने स्वार्थ से
बहक जाता हूँ मैं

ये कहता हूँ
कल से बदल जाऊँगा
फिर कल की कह कर
बहक जाता हूँ मैं

ये मानता हूँ
लाखों हैं मुझ जैसे
अपने ही घमंड से
बहक जाता हूँ मैं

मैं पहचानता हूँ
तुम्हारे चरित्र को
चिकनी-चुपड़ी बातों से
बहक जाता हूँ मैं

ये जानता हूँ
चार दिन है ज़िन्दगी
इसकी चकाचौंध देख
बहक जाता हूँ मैं

Tuesday, November 11, 2014

ख़ामोश खामोशियाँ

मन के कोलाहल से
बचाने आ जाती हैं
ख़ुद मेरी खामोशियाँ
तुम्हारी नज़र में
रास आती हैं मुझ को
अक्सर खामोशियाँ
खामोश नहीं हूँ मैं
फिर भी मेरे पास
आती हैं खामोशियाँ
तुम कुछ भी कह लो
बड़ी अज़ीज़ मुझ को
ये मेरी खामोशियाँ
ज़माने के शोर में
शोर करने लगती हैं
ख़ामोश खामोशियाँ

Sunday, November 2, 2014

तारा ही भला

सूरज के रहमो करम से
लेकर उधार की रौशनी
जग भर इतराता चाँद

दूर से सही अच्छा लगा
अपनी रौशनी बिखेरता
एक तारा टिमटिमाटा

चाँद अक्सर बीच आकर
सूरज और पृथ्वी दोनों से
अपना हित साधन करता

सूरज भी कुछ कम नहीं
वह भी रौशनी के ऐवज़ में
कितने चक्कर लगवा देता

अपनी सामर्थ्य मुताबिक
जितना हो दे सकने वाला
मुझे तारा ही भला लगता

Wednesday, October 29, 2014

रिश्ते बिना डोर के

हो जाता हूँ कभी
भ्रमित सा मैं
बदलते परिवेश में
अब लोग यहाँ
नूतनपंथी हैं प्रायः
गाँव के गंवारों से दूर
शहर के संभ्रांत हैं
लोग बस लोग हैं
रिश्तों की डोर
नहीं पकड़ना चाहते
इनके रिश्ते अब
बिना डोर के होते हैं
वाई-फाई की भाँति
दूर से जुड़े हुए से
वो भी मर्ज़ी से ही
चाहा तो ऑन किया
वरना ऑफ़ लाइन
मशीनी युग है
मशीन की तरह हैं
इनके सभी अंदाज़

Monday, October 27, 2014

ऐसी नादानियाँ

न जाने क्यों
खूबसूरत बना कर
दिखा देता है
जलते से रँग
बादलों के
दिखने लगता है
जानदार से
हवाओं के कहर से
बिखरते हुए
बादलों को भी
जाने क्या सोच
ये सब दिखलाकर
करने लगता है
आसमान भी
ऐसी नादानियाँ
कभी-कभी

Sunday, October 26, 2014

मसखरा

कितनी आसानी से कह दिया
दिल का मामला है कभी कभी
बड़े तंज़ भी क्या अदा से कहे
दोधारी तलवार से लगते कभी
जो भी हो बात मोहब्बत की है
जानकर अनजान होते हैं सभी
बस हँसी है कि रूकती नहीं है
बड़ा ही मसखरा है ये दिल भी
समझना समझाना सब छोड़
खुद ही लगता है हँसाने कभी
रात की दिन से करता चुगली
दिन भर सोता है कभी कभी

Sunday, October 19, 2014

ऐसा ही रहूँगा

बहुत कुछ मिला
लेकिन फिर भी
वो नहीं मिला
जो चाहा मैंने
अभिलाषायें मेरी
असीम थीं
हरेक की तरह
कुछ आधी-अधूरी
और शेष अपूंर्ण
शायद रह गईं
मरीचिका बन
मुझे चाहिये था
थोड़ा सा प्यार
कुछ अपनापन
और कुछ सुक़ून
कोताही नहीं की
मेरी दृष्टि में
मैंने अपनी ओर से
शिक़ायत फिर भी
कोई नहीं मुझे
आशावान था
ऐसा ही रहूँगा


Friday, October 17, 2014

Momentary Yet Long

On a cold and silent moment
Breeze whispers in your ears
With a feeling of chill around
Hear the murmurs of your heart
Listen to the feelings of mind
Get more spark and park yourself
In the romantic world of thoughts
Cold may sound warm and cosy
Nature mingles with your nature
Synchronization of surroundings
With one's body, mind and soul
The hope amidst the nothingness
And the very self reassurances
Illumination of the inner lights
Feeling divine yet experiences
Of the ordinary, earthly beings
The wandering of the thoughts
Momentary yet that long lasts!

Thursday, October 16, 2014

पलायन की टीस

पहले सब कुछ था
यहाँ लोगों के पास
उनके आस-पास
हर वयस के लोग
एक जीवन्त क्रम
अब लोग बस गए
यहाँ से दूर कहीं
अब भी बाक़ी है उनमें
पलायन की टीस
लेकिन विवश हैं वो
नए परिवेश के हाथों
चाहे अनचाहे जो कहो
कभी-कभार जब
आते हैं पहाड़ के गाँव
तो नज़ारा चिढ़ाता है
अपनी नीरस स्थिति
और परिस्थिति दिखा
लोग गिनती के बचे हैं
गलियाँ उदास पड़ी हैं
खेत-खलिहान सब
बंज़र रूप में हैं
वातावरण शान्त है
पशु-पक्षी अचंभित हैं
क्यों नहीं है यहाँ अब
वो पुरानी चहल पहल
ज़र्ज़र मकानों से मानो
असहनीय दुःख दीखता
इनके आबाद दिनों के
पुराने कथानक का


Tuesday, October 14, 2014

दर्द के आयाम

दर्द बिन माँगे
मिलता है यहाँ
हर किसी को
लेकिन फ़ितरत
आदमी की
बताती है कि
दर्द बड़ा है
या फिर एहसास
अपने दर्द का
औरों के दर्द का
एहसास भी
अपना लगता है
कभी- कभी
मीठा लगता है
अपना ही दर्द
कभी-कभी
शायद
अलग-अलग हैं
दर्द के आयाम

Sunday, October 12, 2014

यही क्रम

बस वही क्रम
सोच रहा हूँ
स्वयं को समझना
विश्व की समझ से
कहीं अधिक कठिन
नए-नए प्रश्नचिन्ह
उत्तर का अभाव सा
नए की तलाश में
नया नहीं मिला
कुछ भी, अब भी
जीवन प्रसंग भी
दृष्टान्त लगते हैं
सखा, मित्र, साथी
अनजान लगते हैं
देश-परिवेश सारे
एक से लगते हैं
लोगों के अहंकार
उनकी रीत, व्यवहार
शिष्ट-अशिष्ट आचार
पहचाने लगते हैं
फिर भी मुझ को
जीवन के सब रंग
अच्छे लगते हैं
अब यही क्रम मुझे
जीवन लगते हैं

pic credit: Madhu Sharma

Thursday, October 9, 2014

आज़माइश

मौसम की बयार का हम
हर लुत्फ़ यूँ आज़माएंगे
हर आज़माइश के साथ
उम्मीद अपनी जिलाएंगे
बहारों की तमन्ना लिए
सर्द मौसम गुजर जायेंगे
गर्मियों की रुत से पहले
बहारों के गीत गुनगुनायेंगे
बरसात के आलम सोचकर
हर गर्मी सहन कर जायेंगे
कुछ इन्हीं खयालों में हम
गीत मौसम के गुनगुनायेंगे
ज़िन्दगी की तरह हम भी
हर रंग ख़ुशी से रंग जायेंगे

Sunday, October 5, 2014

मन में बचपन

बचपन की कहानियाँ
छोटी-छोटी बात
आज भी याद है
छोटी चीज़ों से
छोटी-छोटी खुशियाँ
कितनी बड़ी लगती थीं
कल की सी बात है
बड़ी बातें बस सपने
जो मिले उसी में तसल्ली
दोस्ती ज़्यादा नफ़रत कम
पराये भी अपने
सब कुछ साझा
कोई कैसे भूल सकता है
अब बड़े हो गए हैं
सपने भी बड़े हैं
अपने भी पराये हैं
दोस्ती कम है
साझा कुछ नहीं है
खुशियाँ नदारद हैं
छोटी समझ में नहीं आती
बड़ी भी छोटी लगती हैं
शुक्र है दिल से सही
मेरे मन में मैंने
बचपन संजो रखा है

Saturday, October 4, 2014

तुम्हारी खातिर

कभी तुम भी
यूँ कह देते
चन्द अल्फ़ाज़
बगैर सोचे
लेकिन समझकर
हमारे बारे में
हम भी शायद
उम्मीद करते हैं
ऐसी तुमसे
कभी-कभी
भूले से सही
भुलाकर तुम
तुम्हारे पूर्वाग्रह
तवज़्ज़ो दे देना
हमारी बात पर
उम्मीद है
समझोगे तुम
हमारी खातिर नहीं
तुम्हारी
अपनी खातिर


Friday, October 3, 2014

बुराई-भलाई

बुरे लोग
जब करते हैं
बुरे काम
अच्छे लोग
अपने लिए
भजन करते हैं
दोनों मिलकर
अपने-अपने
जतन करते हैं
इसी कारण
बुराई-भलाई दोनों
सामंजस्य में हैं
फिर क्यों भला
हम यूँ ही
शिक़ायत करते हैं


शस्त्र ज्ञान

बेसुरी हो गई है रे अब कान्हा तोरी बांसुरी
तेरा भी नाम लेकर छेड़े हैं सब यहाँ छोरी

तुम तो रंगरसिया थे कुछ अलग तरह के
माखन चुरावत कभी या बस मटकी फोरी

आज के बेसरमों की मति में जो खोट है
प्रेम नहीं समझें बस लुटि जात लाज मोरी

तुम बचाये लाज द्रौपदी की चीरहरण से
पर अब के बांके छोरे करें चीरहरण मोरी

अब न ज्ञान अब न कोई बात यूँ समझाना
शस्त्र ज्ञान दो मोहे आके लाज राखो मोरी


Friday, September 26, 2014

चलता रहा हूँ मैं

चलता रहा हूँ मैं
रुके हुए से वक़्त
ठहरी सी ज़िन्दगी
सब के साथ
अपलक देखते
लोगों की दृष्टि
और उनके
कौतूहल भरे
मिज़ाज़ के साथ
वक़्त के साथ
जमी बर्फ से हुए
दिमाग़ लोगों के
उनकी जड़ता के साथ
अपनी ही दृष्टि में
किंकर्तव्यविमूढ़
मेरे पूर्वाग्रहों के साथ
कभी रुकना चाहा
फिर भी रुक नहीं पाया
चलता रहा हूँ मैं

Saturday, September 6, 2014

तुम्हारी बात

मेरे लिए तो
बड़ा सम्मोहक था
यूँ अस्कस्मात्
मिलना तुमसे मेरा
लेकिन फिर भी
शालीनता के दायरे
आभास कराते रहे
मुझे प्रतिपल
मन की बात
मन ही में रखने की
ठान ली थी मैंने
परन्तु आज भी
भावनात्मक न सही
मधुर स्मृति के रूप में
मन-मस्तिष्क को
सुखद लगता रहा है
तुमसे वो मिलन
तुम्हारी बात
तुम्हें मालूम होगी

Friday, September 5, 2014

वजह की तलाश

अब तोड़ दो ये दीवारें
रस्म-ओ-रिवाज़ की
मज़हब और इबादत की
सूबे और ज़ुबान की
मुल्कों और मिल्क़ियत की
किसी भी फ़िरक़ापरस्ती की
आदमी और ख़वातीन की
बस इंसान बन कर देख लो
ये ज़मीन नहीं है हैवान की
वरना सब ख़त्म हो जायेगा
बातें करो इंसानियत की
जीने की वजह तलाश करो
ज़रूरत नहीं एक राह की
सिर्फ तरीक़े तो अलग़ हैं
बाक़ी सब तो एक सा है

Thursday, September 4, 2014

अज़ब खेल है

कई मुल्कों में देख
करतब हुक्मरानों के
लोग भी सोचते हैं
अज़ब खेल है इधर
जम्हूरियत का भी
किसी की परवाह नहीं
बस फ़ैसले करती है
ज़मात चुनिंदा लोगों की
तारीफ़ करते नहीं थकती
ज़ुबान खुद हुक्मरानों की
आदत हो गई है अब
लोगों को इस खेल की
वो भी बुन रहे हैं
अपने ताने-बाने सब
बेतहाशा भागता है
हर कोई यहाँ अब
बगैर सोचे या किये
परवाह किसी और की
मुल्क़ का क्या है
सब का है कहते हैं
इसीलिए किसी का नहीं
फायदे सब चाहते हैं
क़ायदे कोई नहीं मानता
औरों से रखते हैं उम्मीद
चिराग़ थाम उजाले की

Wednesday, September 3, 2014

ज़रूरी है हौसला

यहाँ और कुछ भी नहीं
समझ की बात है बस
तुम भी जी लोगे ज़रूर
चन्द परेशानियाँ ही सही
सभी जीते रहते हैं यहाँ
अपने हिस्से का जीवन
साँसें सभी की उधार की
कौन भला गिन सकता है
थोड़ी सी धूप कुछ जगह
जीने को और क्या चाहिए
ज़रूरी है हौसला बनाना
हौसला रख लो ऐसा तुम
ठोस चट्टान के बीचों-बीच
उगे हुए एक हरे पौधे सा
हर विपरीत परिस्थिति में
अलग़ से नज़र आता हुआ
कमज़ोर लेकिन हरा-भरा
सब मुसीबतों से जूझता

Sunday, August 24, 2014

बस अकारण ही

रोज़ सुनते हैं
मंदिर की घंटियाँ
गिरजाघरों के शब्द
मस्जिदों से अजान
गुरुद्वारों के पाठ
और भी कई आवाज़ें
कल्याण की ख़ातिर
संसार भर के
बग़ैर अपवाद के
लेकिन धर्म के दम्भ
आँखों को बनाती हैं
हर तरफ़ पारान्ध
धर्म तब द्योतक हैं
निहित स्वार्थ के
निश्चित विवाद के
सम्मोह की मूर्खता के
कल्याण के मायने
सिमट जाते हैं
संकीर्ण मानसिकता
हावी हो जाती है
प्रतिस्पर्धात्मक जगत की
विनाश की कड़ी बनती है
एक निरंतर प्रतिद्वंदिता
बस अकारण ही

Saturday, August 23, 2014

My Moon

I'm not the only one
Like everyone else
I too wanted the Moon
For having observed
Moon emitting lights
In phases all different
Yet with clear pattern
Brightening dark nights
Of each one and sundry
Closest to us in galaxy
Near our own vision
As I grew with the time
Desires became unlimited
Some multidimensional
And multifarious too
No longer I want Moon
Yet the imprints remain
Looking for and expecting
More on a New Moon day
And willing to question
Give me my Moon!



जीते-जीते

भान है मुझे भी
हैं बाधाएं बड़ी
मेरे भी पथ में
सजग इन बातों से
किन्तु, बढ़ता हूँ मैं
अपनी ही लय है
जीवन की गति में
ज्यों चाहे देखो
प्रतिपल, प्रतिक्षण
नूतन में भी है
बसा हुआ प्राचीन
कितने आकर चले गए
मैं भी जीकर जाऊँगा
कुछ भेद यहाँ पाउँगा
कुछ अनजाना रह जाऊंगा
हर लय के संघर्ष में पर
अपना कर्तव्य निभाऊँगा
मैं जीते-जीते ही जाऊँगा

Anachronism

Truth whatever be
Not seldom but often
I find myself in middle
Of things and systems
Just sandwiched between
Traditional and modern
Generations new or old
The ethos and thoughts
Amidst reality or myths
Varieties,kinds so many
Questioning the faiths
People express opinions
Whatever way interpret
Sure like an example of
Exhibiting all my ways
As branded anachronism!

उत्साह

मेरे ही मन में तुम बस कर
मुझको उदास कर जाते हो
तुम क्यों हो इतने चंचल
पल में दूर, पास आ जाते हो
भाव समझता था ये मेरे हैं
पर तुम इन पर छा जाते हो
मेरे गीतों के बोलों में भी
तुम यहाँ-वहाँ दिख जाते हो
मेरी यूँ सीमारेखा तय कर
तुम अपना हास बढ़ाते हो
विरह,राग,क्रोध के पल बन
मेरे तन-मन में छा जाते हो
फिर भी तुमको मालूम नहीं
मन आनंदित कर जाते हो
उल्लास भरे पल याद दिला
अब भी उत्साह बढ़ा जाते हो

Thursday, August 21, 2014

अविश्वास

न जाने कैसे यहाँ
कभी-कभी क्या
अक्सर आ जाते
चंद ख़यालात
बस अनायास
और कभी
कुछ नहीं सूझता
हज़ार सोचने पर भी
और सप्रयास
लेकिन शायद
दोनों ही हालत में
बवंडर सा मचता
अंतर्मन में
बढ़ा देता है
स्वयं पर मेरा
अविश्वास


'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है- नीरज

'सत्य बस ब्रह्म और मिथ्‍या है,
यह सृष्‍टि चराचर केवल छाया है, भ्रम है?
है सपने-सा निस्सार सकल मानव-जीवन?
यह नाम, रूप-सौंदर्य अविद्या है, तम है?

मैं कैसे कह दूँ धूल मगर इस धरती को
जो अब तक रोज मुझे यह गोद खिलाती है,
मैं कैसे कह दूँ मिथ्‍या है संपूर्ण सृष्टि
हर एक कली जब मुझे देख शरमाती है?

जीवन को केवल सपना मैं कैसे समझूँ
जब नित्य सुबह आ सूरज मुझे जगाता है,
कैसे मानूँ निर्माण हमारा व्यर्थ विफल
जब रोज हिमालय ऊँचा होता जाता है।

वह बात तुम्हीं सोचो, समझो, परखो, जानो
मुझको भी इस मिट्‍टी का कण-कण प्यारा है,
है प्यार मुझे जग से, जीवन के क्षण-क्षण से
तृण-तृण पर मैंने अपना नेह उतारा है!

मुस्काता है जब चाँद निशा की बाँहों में
सच मानो तब मुझ पर खुमार छा जाता है,
बाँसुरी बजाता है कोयल की जब मधुबन
कोई साँवरिया मुझे याद आ जाता है!

निज धानी चूनर उड़ा-उड़ाकर नई फसल
जब दूर खेत से मुझको पास बुलाती है,
तब तेरे तन का रोम-रोम गा उठता है
औ' साँस-साँस मेरी कविता बन जाती है!

तितली के पंख लगा जब उड़ता है बसंत
तरु-तरु पर बिखराता कुमकुम परिमल पराग
तब मुझे जान पड़ता कि धूल की दुल्हन का
'अक्षर' से ज्यादा अक्षर है सारा सुहाग

बुलबुल के मस्त तराने की स्वर-धारा में
जब मेरे मन का सूनापन खो जाता है,
संगीत दिखाई देता है साकार मुझे
तब तानसेन मेरा जीवित हो आता है।

जब किसी गगनचुंबी गिरि की चोटी पर चढ़
थक कर फिर-फिर आती है मेरी विफल दृष्टि
तब वायु कान में चुपसे कह जाती है,
'रै किसी कल्पना से है छोटी नहीं दृष्टि'

कलकल ध्वनि करती पास गुजरती जब नदियाँ
है स्वयं छनक उठती तब प्राणों की पायल,
फैलाता है जब सागर मिलनातुर बाँहें
तब लगता सच एकाँत नहीं, सच है हलचल।

अंधियारी निशि में बैठ किसी तरु के ऊपर
जब करता है पपीहा अपने 'पी' का प्रकाश
तब सच मानो मालूम यही होता मुझको
गा रहे विरह का गीत हमारे सूरदास !

जब भाँति-भाँति के पंख-पखेरू बड़े सुबह
निज गायन से करते मुखरित उपवन-कानन
सम्मुख बैठे तब दिखलाई देते हैं मुझको
तुलसी गाते निज विनय-पत्रिका रामायण।

पतझर एक ही झोंक-झकोरे में आकर
जब नष्ट-भ्रष्ट कर देता बगिया का सिंगार
तब तिनका मुझसे कहता है बस इसी तरह
प्राचीन बनेगा नव संस्कृति के लिए द्वार।

जब बैठे किसी झुरमुट में दो भोले-भाले।
प्रेमी खोलते हृदय निज लेकर प्रेम नाम
तब लता-जाल से मुझे निकलते दिखलाई-
देते हैं अपने राम-जानकी पूर्णकाम।

अपनी तुतली आँखों से चंचल शिशु कोई
जब पढ़ लेता है मेरी आत्मा के अक्षर
तब मुझको लगता स्वर्ग यहीं है आसपास
सौ बार मुक्ति से बढ़कर है बंधन नश्वर

मिल जाता है जब कभी लगा सम्मुख पथ पर
भूखे-भिखमंगे नंगों का सूना बाजार,
तब मुझे जान पड़ता कि तुम्हारा ब्रह्म स्वयं
है खोज रहा धरती पर मिट्‍टी की मजार।

यह सब असत्य है तो फिर बोलो सच क्या है-
वह ब्रह्म कि जिसको कभी नहीं तुमने जाना?
जो काम न आया कभी तुम्हारे जीवन में
जो बुन न सका यह साँसों का ताना-बाना।

भाई! यह दर्शन संत महंतों का है बस
तुम दुनिया वाले हो, दुनिया से प्यार करो,
जो सत्य तुम्हारे सम्मुख भूखा नंगा है
उसके गाओ तुम गीत उसे स्वीकार करो !

यह बात कही जिसने उसको मालूम न था
वह समय आ रहा है कि मरेगा कब ईश्वर
होगी मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठित मानव की
औ' ज्ञान ब्रह्म को नहीं, मनुज को देगा स्वर। - नीरज


बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी- नीरज

बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा
मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता न कर लिया गर पतझर से
आँगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बाँसुरी में स्वर फूँको तो
पपीहा दरवाजे गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो ऋतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दु:ख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो
शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

Wednesday, August 20, 2014

Nuances

Getting along the life
Is sure so intoxicating
Lost around the rhythms
Of living and livelihood
People each one different
Telling their own stories
In their own unique ways
Events and experiences
The milestones achieved
Of success and failures
Keeping track of memories
Incidents and happiness
Love with self and others
Record of the trajectory
The weird privy moments
Snubs and appreciations
Numerous ways to look at
The nuances of very life


Saturday, August 16, 2014

आशावान

फिर सोच लो तुम
ये क्या कहते हो
मैंने कहा था तुमसे
क्राँति बस भ्रान्ति है
तुम नहीं मानोगे
फिर भी कहता हूँ
बदल दो अन्दाज़
मुझे डर लगता है
कल बदल जाओगे
शायद तुम भी कहीं
भरोसा तोड़ोगे मेरा
मैं मान चुका हूँ
यथास्थिति की बात
भ्रांति में ही जी लूँगा
ये भी सोचता हूँ
कोशिश करोगे तुम
इसलिए मौक़ा दूँगा
मेरे ज़ज्बात बदलो
आशावान भी रहूँगा

Friday, August 15, 2014

Between Two Events

All haunting question around
Seldom are available answers
Wondering thoughts clueless
About the life and living both
Existence throwing questions
In this our amorphous World
Karma, Krishna of course
Are two great phenomenon
Sure linked to one another
Woven in myths and reality
Most people here live with
Preposterous expectations
Albeit it has the other side
Being life’s adrenaline too
Yes, to keep and get going
Living life with a purpose
Anyways that is a bit hazy
Philosophically as they say
Living life is just one thing
With sheer purpose to live
Just between two events

Far Away

Lost in mortal times
Far away from all here
He migrated one day
Yet lives in our hearts
Days in and days out
For reasons of deeds
And affection given
The arguments apart
Lived for others sake
Without expectations
Treating self selfless
Complaining to none
On his plight around
With full of admiration
To one and everyone
An untold sainthood
Unrecognized good
He did for everyone

दूसरों की आज़ादी

बड़े मायने रखती है
आज़ादी मेरे लिए भी
मैं बहस करता नहीं
कि किसको मिली है
असली आज़ादी यहाँ
मेरा यह मानना है
कमोवेश जो भी हो
सब ने पाई आज़ादी
लेकिन दरअसल
हम सभी विचार करें
मुद्दा बस इतना है
सम्मान करते हैं
हम कितना यहाँ
दूसरों की आज़ादी का!

Thursday, August 14, 2014

दस्तूर

समय ने सब बदल दिया
हर बात बस उलट चली है
अब कोई पुकारता नहीं है
बस आहटों में हम जी रहे हैं
चाहत अब नहीं मचलती
मोहब्बत का असर कम है
बस यूँ उदास बैठे रहते हैं
तमन्ना सब गुमशुदा सी हैं
दोस्ती, रहनुमाई लापता हैं
हर कोई खुद की फ़िक्र में है
ज़िन्दगी रँग बदलती नहीं
ज़िंदादिली बेरंग है अब यहाँ
रौशनी धूमिल हो चली है
वक़्त का सूरज ढल रहा है
ज़िन्दगी अब हम जीते नहीं
बस दस्तूर हम निभा रहे हैं


Saturday, August 9, 2014

अपनी-अपनी

कहते हैं लोग हमसे
सैकड़ों फ़िदा हो गए
लाखो लोग बैठे हैं
इंतज़ार में बारी के
सभी अपनी-अपनी
तैयार क़ुर्बानी को
उसके रसूख़ के लिए
मौक़े की तलाश में
उसकी हर अदा पर
फ़ना होने की क़सम
करोड़ों ने खाई हैं
लेकिन हक़ीक़त में
नज़र कोई आया नहीं
हमको कोई ऐसा
जो फ़ितरत रखता हो
मुल्क़ के काम आने की
होड़ लगी हुई है यहाँ
चाहत में सभी को
अपनी-अपनी इधर
रोटियाँ सेंकने की

Friday, August 1, 2014

बस अप्रयास

शब्दों में नहीं
हकीकत में
नहीं दीखता
कोई मेरे पास
पर अक्सर
अनायास ही
अपने आप ही
संभलता मन
दिलासा देता है
न जाने क्यों
करवट बदल
बस अप्रयास
होने लगता है
मुझे एहसास
तेरे होने का
यूँ मेरे पास

Welcome My Thoughts

Like a breeze in the summer
Amidst my vacillating mind
Welcome all my thoughts
They may not matter much
To me or anyone around
But are always dear to me
Caressing soul matters
Buttressing my existence
In those fragile moments
That unending stream
Of confusions so many
Like a crossroad makes
Anyone stress in reasons
Having to go somewhere
In this small yet vast World
My thought have brought me
Always the solace here
Arguing with own arguments
Welcome my dear thoughts

Thursday, July 31, 2014

कुछ ऐसी अलख जगाओ

नीरस है चारों तरफ समां
अब गीत कहाँ संगीत कहाँ
तन-मन में मधुरस छा जाए
कुछ ऐसा गीत सुनाओ

अब साज नहीं सजते हैं वो
मन वीणा मौन उदास बसी
मन के सब तार करें झंकार
कुछ ऐसी बीन बजाओ

अब सबको ऐसी जल्दी है
भागी जाती सी दुनियाँ है
बैठो कुछ पल सुस्ता लो
कुछ ठहर के चलते जाओ

अप्रतिम यहाँ सँगीत भरा
लेकिन है जाने कहाँ छुपा
दिल के अंदर तक छा जाए
ऐसा सुर-संगीत सजाओ

चेहरों में अज़ब उदासी है
नज़रें भी प्यासी-प्यासी हैं
स्वच्छंद नाचता हो ज्यों मन
कुछ ऐसे नाचो गाते जाओ

झोली भरने की फिक्र न हो
जीने-मरने की बात न हो
हर ओर ज़िन्दगी हँसती हो
कुछ ऐसी अलख जगाओ


The eternal happiness

I was always told
There are heavens
And I should look
To be there one day
Everyone is equal
And at peace there
No quarrels, issues
No envy or enmity
No greed, no violence
No one competes evil
Compete for compassion
What prevails then is
The eternal happiness
Each one for others
They are one for all
And the all for one
Everything in harmony
Nothing is exclusive
Everything is inclusive
Ever since I look up
Without trying go up
Just wondering about
When will that happen
Here on this Earth!


Tuesday, July 29, 2014

नई मंज़िलें

बड़ी उम्मीद ज़िन्दगी से थी
चाहतें की थीं ज़माने भर की
कोई क़िस्मत के नाम पर
कभी बस हालात के चलते
दामन के क़रीब से गुजर गया
या आकर झोली से निकल गया
कभी राहत के तौर पर इधर
अनचाहा कुछ और मिल गया
कभी हैरतअंगेज़ कर के मुझे
जाने क्या-क्या न देता गया
मुक़द्दर की बात और है यहाँ
जीने की राह भी कई और हैं
हर दुःख भी मेरा अज़ीज़ था
यूँ ख़ुशियाँ लुटाता चला गया
मेरी चाहतों की डगर पर यहाँ
नई मंज़िलें दिखाता चला गया

फ़ितरत बदल न पाओगे

मैं भी तो इसी गगन में हूँ
आज़माने का जतन करना
सूरज बन झुलसाने की
तुम कोशिश करते रहना
मैं ठण्डा कर फैला दूँगा
उसी तुम्हारी रौशनी को
तुम छुप जाओगे कहीं और
देखेंगे लोग तब मेरी ओर
सोचेंगे कितनी शीतलता है
चाँदनी में मेरी बस
उनका क्या, बिसरा देंगे
ये रौशनी तुम्हारी ही है
बस कह देंगे वो तो
सूरज नहीं चाँद बेहतर है
सितारे भी साथ होंगे मेरे
मैं कैसा इतराता फिरूँगा
सारे बाराती होंगे मेरे
तुम जल-जल आ जाओगे
सबको दिन भर झुलसाओगे
अपने ही रूप दिखाओगे
लोग फिर करेंगे याद मुझे
करेंगे मेरा इन्तज़ार
अपनी भी मेरी भी उनकी भी
फ़ितरत तो बदल न पाओगे

Monday, July 28, 2014

अच्छा लगे

शायद नहीं अहसास कोई तुमको
बस अपनी ही सोचते, कहते हो
हमें तो आदत सी हो गई है अब
तुम्हारी सुनने अपनी छुपाने की
फिर भी कभी महसूस होता तो है
हमारी भी सुन लेते कभी तुम भी
यूँ तो हमारी कोई शिकायत नहीं
चुप ही रहना चाहें ऐसा भी है नहीं
कभी समय निकाल लेना तुम भी
इत्मीनान से बातें करे लेंगे हम भी
अपने प्रश्न और जिज्ञासायें तुम
थाम लेना और सुनना हमारी तुम
क्या मालूम अच्छा लगे कुछ भी
तुमको भी हमको भी दोनों को ही


आजमा लो

अभी गुजर जाने दो
तुम इन हवाओं को
मचलती उमंगों को
इन नए ख्यालों को
सारे जज़्बातों को
बहकती बातों को
महकती रुत को
और भी वज़ह होंगी
यूँ महसूस नहीं होंगी
एक वक़्त आएगा
महसूस करायेगा
तुमने अच्छा किया
वक़्त से जान लिया
सब्र का इम्तहान लिया
तब इरादा कर लेना
करना या नहीं करना
क्या फ़र्क़ पड़ता है
कुछ समय आजमा लो
शायद अंज़ाम भला हो!


Friday, July 25, 2014

Beautiful Happening

Your voice sounds musical
Ringing a hundred chimes
Whenever you speak softly
It sounds like music to ears
Even your those outbursts
Do not sound any harsh
I am lost in your charms
As if in some happy arms
I guess it is love knocking
And a beautiful happening
Lovely thoughts rocking
You-me both in tandem
The feeling so romantic
Whole World is forgotten
It’s just you and I to think
Above the World us risen
As if nothing less, beyond
Everything around smitten

Animal Spirit

The uncivil every bit unjust
Spirit of outraging modesty
Unabated and unrestrained
In all nooks and corners here
Belies developed societies
Its stature of being any civil
Trying to misuse manhood
Molesting, raping women
For momentary pleasure
Society must rewrite rights
Separate rights for women
Exhibit macho animal spirit
Bewildering the holocaust
Of crimes against women
Need no lesser punishment
But by all means capital one
In full public view in open
Without a single hesitation

हर तरफ़

शोर-ओ-गुल के बीच
महकती सी बयार हैं
कहीं आहटों के शोर में
चाहतों के खुले द्वार हैं
हर तरफ़ वरना यहाँ
नफरतों के बाजार हैं
आहतों के गुजरे लम्हे
क्या हुआ जो ख़ार हैं
बागवाँ ये क्या जाने
यहाँ कौन गुनहगार हैं
मोहब्बत से जो देखो
ये आज भी गुलज़ार हैं
दिल की नज़र से देखो
हर मौसम ही बहार हैं

Thursday, July 24, 2014

सब अपनी

कुछ उज़ली हैं
कुछ धूमिल सी
स्मृति की रेखायें
मेरे बचपन की
जाने क्यों लेकिन
सब बिसरी सी हैं
प्रायः वो बातें
मेरे यौवन की
बातें कुछ शायद
इस जग की
मेरे कर्तव्यों की
इधर भारी सी हैं
फिर भी जीवंत
सदा कण-कण में
जीवन की गाथा
बस प्यारी सी हैं
अब ढलती वयस्
इसके अपने आयाम
जो भी स्मृति होंगी
सब अपनी ही हैं

फरियाद

अजीब बात है मुल्क़ को लूटने वाले आबाद रहते हैं
मुल्क़ के लिए सब कुछ लुटाने वाले बर्बाद रहते हैं

एक वो हैं जो अपनी खातिर जान लेने को हाज़िर हैं
वो भी हैं जो मुल्क़ की खातिर जान देने को हाज़िर हैं

वो हर मुसीबत में इस मुल्क़ की सिर्फ खड़े नाज़िर हैं
लोग ऐसे भी हैं जो सब कुछ लुटा देने के मुंतज़िर हैं

खुद ख़ुदा आकर करे इस्तक़बाल उन सब का इधर
जो इस क़ौम की हर राह के साथी यहाँ मुसाफ़िर हैं

वतन के बाद कुछ भी और बाक़ी हो हरेक का यहाँ
वतन के साथ सब हमेशा हों यही फरियाद करते हैं


अपने रंग

ज़िन्दगी के भी अपने अपने रंग हैं
कुछ खुद से कुछ हालात से तंग हैं
ज़माने ने बनाया भिखारी तो क्या
हसरतें तो आज भी शहंशाह की हैं
मुफ़लिस भी हैं तो किसी को क्या
शौक़-ओ-शान हमारी अमीरी की हैं
दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर
लेकिन दिल में सोच बादशाह की हैं
जब जो भी मिला गले लगा लिया
मोहब्बतें कौन सा कहीं और की हैं
चार दिन उधार के हम भी लाए हैं
ख़्वाहिशें होती कब किसी ग़ैर की हैं


Monday, July 21, 2014

पैग़ाम

थोड़ी हो या ज़्यादा हो बस पी लेने दो
ग़म भुलाता कोई उसे रिन्द रहने दो
ख़ुशी से पागल के हाथ जाम रहने दो
जहाँ के मयखाने ये आबाद रहने दो
ग़म छुपते हैं यहाँ इन्हें राज़ रहने दो
टपकता है नूर यहाँ आबाद रहने दो
सरकते हैं कितने नक़ाब सरकने दो
नशाबंदी के पैग़ाम घर-घर जाने दो
बस एक मेरे हाथों में जाम रहने दो
तारीफ़ कोई नहीं गुमनाम रहने दो
बस मेरी हर शाम सुनसान रहने दो


Saturday, July 19, 2014

झोली

आए तो तुम बस खाली हाथ
मगर भरते ही जाते हो झोली
प्यास बुझाते बढ़ी प्यास जब
मद-मय जाने कितनी पी ली
अचरज कोई है नहीं हम को
थाह जगत की तुमने पा ली
क्या-क्या लेकर जाओगे सँग
क्या गिनती है तुमने कर ली
रहो सचेत सम्हालो संचित
फिर न कहना चोरी कर ली
हमने तो बस वक़्त बिताया
खाया कुछ बस उम्र है पी ली

Thursday, July 17, 2014

When Darkness Prevails

I don't look for the lights
When the darkness prevails
For I want to feel and test it
The intensity and effect of
Myself, around me, my thoughts
And me the gullible person
I can vouch myself for it all
I can withstand and sustain
The darkness and its effects
With all the ease around
And when the lights come by
I am doubly reassured of
My tryst with dark moments
And ability to deal with that
The lessons learnt mentally
And my mental toughness


सपनों की दुनियाँ

कहीं दूर से कोई मुझे
दिखाता अंनजाना सा
कोई ख्वाब बेहतरीन
मेरी इच्छा से बड़ा
आकाँक्षाओं से ऊँचा
मैं भी खो जाता हूँ
बस मतिभ्रमित सा
लेता हूँ आनंद सदा
बस क्षणिक ही सही
सत्य से बहुत दूर
फिर भी मनमोहक
कैसी आकर्षक होती है
सपनों की दुनियाँ
कल्पनालोक में सही
कुछ पल के लिए
आनंद की उड़ान


Wednesday, July 16, 2014

Edifice of Life

Beyond horizons of knowledge
Branding things as self-taught
Everyone walking past truth
Pretending to have known it
Even with a mindset of own
Dialectic confusions of mind
Without a known consensus
Serving untruth as the truth
Going around in frenzies
People constantly quoting
Hearsay or unknown premises
The conflicting beliefs on
Edifice of life's beliefs built


Monday, July 14, 2014

मन की मन में

उसके ज़िक्र से मन महकने लगा था
एक नई उमंग आई है मन में
मोहब्बत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगूँ
आया है मेरे भी मन में
क्या जानूँ मैं पहली मुलाक़ात में
क्या होगा उसके दिल में
कुछ बातचीत हो तो बने सिलसिला
क्या है क़िस्मत के मन में
सोचता हूँ करूँ गुफ़्तगू थोड़ी सही
डरता हूँ अपनी ही भाषा से मैं
उसके अरमान क्या मिलेंगे मुझसे
क्या है मेरे अपने अरमानों में
कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ पहुँचूँ
जद्दोजहद चलती रही मन में
चलो कुछ समय और करूँ इंतज़ार
बात रह गई मन की मन में

बरसात

बारिश के मौसम आ गए
सब के मन मानो हर्षा गए
वसन्त में खिले-खिले से
ग्रीष्म की गर्मी में झुलसे
दरख्तों की सूखी डाल पर
फिर पल्लवित हो गए हैं
सब हरे-हरे रँग में पत्ते
नवजीवन के प्रतीक से
अब हर तरफ हरियाली है
और कैसी छटा निराली है
सूरज का मिज़ाज़ नरम है
सारा जहाँ नहाया हुआ है
किसानों के मन पुलकित हैं
आशाएँ फिर नई सँजोये हैं
हवायें सरसराती इतराती हैं
खुशियों के नव गीत गाती हैं
प्रकृति की गोद भर गई है
जीवन में ललक बढ़ गई है
भीगे मौसम में सब तरफ
बरसात की अलसाई रुत है


Tuesday, July 8, 2014

प्रतीक्षा है

फिर चुपके से आके
कोई हवा का झोंका
मेरे कानों में कह गया
फुसफुसाते से स्वर में
क्यों बदहवास से
यूँ उदास बैठे हो
बहारें आने वाली हैं
आँख कान खोल रखो
कहीं ऐसा न हो कि
तुम ऊँघते रह जाओ
और वक़्त गुजर जाये
फिर सरसराते हुए
मुझे जग कर चल दी
अब मुझे भी प्रतीक्षा है
बदले हुए मौसम की


शब्दार्थ

बिना किसी अपराध के
यूँ अकारण ही मुझे
तुमने बहुत कुछ कहा
मैं भी बस सुनता रहा
बिना अपराध भाव के
तुम्हारा हक़ समझ कर
लेकिन फिर भी ज़रुर
एक टीस थी दिल में
शायद समझे नहीं तुम
शब्दार्थ को समझते
मेरा मंतव्य एवं
शब्दों का प्रयोग भी
अपेक्षा रखता हूँ
अब मैं तुमसे भी
मेरा हक़ समझ पाओगे
तुम भी कभी-कभी


Sunday, July 6, 2014

चक्रव्यूह

खो गया हूँ यहाँ मैं
और मेरी मासूमियत
तुम्हारे शब्दजाल में
शहर की जगमगाहट में
जाने कहाँ खो गई
मेरी संवेदनशीलता
बिलकुल तुम्हारी तरह
जीवन की चकाचौंध में
अब न वो जुगनू हैं
न चाँदनी के रंग हैं
नदियों की कल-कल
झरनों के सुर
पक्षियों के कलरव
सब गुम से हो गए हैं
तुम्हारे शहर में आकर
बस शोर ही शोर है
तुम्हारे शहर में
और मेरे अंदर
पलायन की ग्लानि है
प्रकृति की गोद में बसे
मेरे छोटे से गाँव से
पीड़ा है अपने लोगों से
अपनी मासूमियत से
बिछुड़ जाने की
एक अकथनीय सत्य की
न चाह कर भी इसी
चक्रव्यूह में फँसने की


तुम्हारे आस-पास

मेरी दुनियाँ तो
बस इतनी छोटी है
तुम्हारे आस-पास
ये रूह भी मेरी
भटकती रहेगी
और कहीं नहीं
बस यहीं कहीं
तुम्हारे आस-पास
शायद तुम्हें न भी हो
इसका एहसास
और कहाँ जाऊँगा
लेकर के मैं अपना
ये भस्मीभूत शरीर
नहीं है मुझे कोई
स्वर्ग की कामना
यहीं है मेरा स्वर्ग
तुम्हारे आस-पास


जब तक उम्मीद

कल उम्मीदें दिलासा देती रहीं कल के लिए
आज़ हम कल की बात कल पर टालते गए

हर बात की अपनी उम्र है हर किसी के लिए
अंदाज़ा करना मुश्क़िल है ये सब किसलिए

हम थे बादलों से बारिश की उम्मीद लगाये
बादल छाये और बिन बरसे यूँ ही चले गए

फिर आसमाँ की तरफ देखेंगे नज़रें गढ़ाए
बादल से होगी उम्मीद टकटकी लगाये हुए

क्या मालूम यूँ कब कौन कहाँ मिल जाए
ज़िन्दगी तभी तक जब तक उम्मीद जिए


Saturday, July 5, 2014

क्यों

क्यों डरावने लगते हैं
कभी कभी ये पल
अँधेरी रात के

जुर्म तो पनपता है
बेख़ौफ़ यहाँ सब तरफ़
उजालों में दिन के

न जाने क्यों आखिर
हम सपने देखते हैं
सब जान कर इंसाफ के

यहाँ जीने को मिल गया
हम कम क्यों आँकते हैं
मायनों को जीवन के


हर हाल में

हम नहीं अंधेरों से डरते हैं
उनका भी अपना काम है
वक़्त से रात ज़रूर आएगी
फिर सुबह खुद ही आएगी
यूँ भी अब कहाँ फ़र्क़ होता है
कब रात है या फिर दिन है
ग़म की घड़ी जब भी आएगी
ख़ुशी भी साथ गुनगुनायेगी
रास्ते ऊबड़-खाबड़ तो क्या
अपना सफ़र तय करना है
क्या कहाँ किसको क्या मिला
हमको नहीं इन बातों से सिला
हम तो ख़ुद को क्या हासिल
ये भी हिसाब नहीं रखते हैं
बस अपने कर्तव्य-पथ पर
हर हाल में चलते जा रहे हैं


Essence

The epitome of real living
With a meaning and purpose
Is living in complete harmony
With everyone around you
Circumstances whatever be
Surroundings as they may be
I and me becoming we and us
Nothing is mine but all is ours
Everyone o share the credits
All of us to share the blames
Love, live not hate or blame
Culmination of your thoughts
Thus harmonize you and all
Illumination of mind and soul
The essence of life and living
In abstract, amorphous World


Friday, July 4, 2014

Unraveling

We all wander around
Through our trajectory
In a mysterious World
Of weird combinations
Unexplained paths here
With or without signposts
Unraveling the mystery
In its various facets
A travail of uniqueness
Of each and everyone
From self to dear ones
Own, known to unknowns
From darkness to light
Old to the new things
Not following a pattern
And the life goes on!


दिलासा

आज बरसात के इस मौसम में भी तो
वो पहले सा सावन नहीं दिखाई दिया
कौन चुरा ले गया है मेरे वो सारे पल
बादलों का नामोनिशान मिटा दिया
किता अरसा गुजर गया देखते देखते
जब सब भीगा भीगा सा दिखाई दिया
कौन लेकर आएगा ठंडक इस गर्मी में
जब मुझे इस सूरज ने झुलसा दिया
कहानियाँ बरसात से इश्क़ की बात की
कोई नहीं इधर नहीं सुनाता दिखाई दिया
मौसम की भी रंगत ज़रूर बदलेगी यहाँ
बस इसी बात ने दिलासा ये दिला दिया

Tuesday, July 1, 2014

चुप था सूरज

चाँद भी है बड़ा ये चाँदनी भी भली
सूरज़ से बड़ा लेकिन कोई भी नहीं
चाँद इतरा के बोला बड़े नाज़ से
बगैर उसके जहाँ ये कुछ भी नहीं
चाँदनी ने कहा जो अगर मैं न हूँ
रौशनी के बिना चाँद कुछ भी नहीं
आसमाँ ने कहा मैं जो चाहूँ अगर
बादलों में छुपा चाँद कुछ भी नहीं
चुप था सूरज बड़ा बोला कुछ नहीं
जानता था कि है चाँद कुछ भी नहीं