गुल अब भी यहां गुंचों में सजे हैं
देख तितलियां और भंवरे डटे हैं
अपनी-अपनी फ़ितरत है साहब
फिर भी अरमान दोनों के सजे हैं
गुलों को मुस्तकबिल की फ़िक्र है
उनके हिस्से के यही काम बचे हैं
दोनों के ही अपने काम हो रहे हैं
फिर काहे को ये कोहराम मचे हैं
देख तितलियां और भंवरे डटे हैं
अपनी-अपनी फ़ितरत है साहब
फिर भी अरमान दोनों के सजे हैं
गुलों को मुस्तकबिल की फ़िक्र है
उनके हिस्से के यही काम बचे हैं
दोनों के ही अपने काम हो रहे हैं
फिर काहे को ये कोहराम मचे हैं
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