Monday, January 28, 2019

पैबन्द

हसरतें यूं तो मोहताज़ न थीं
बस असमंजस के पैबन्द लगे
चंद रूबरू मुलाक़ातों के होते
चाहतों के सिलसिले बनने लगे
न तो हम न वो ही मुस्तैद रहे
ज़िन्दगी के कारवां बढ़ने लगे
फ़ैसले का लेकिन वक्त आया
दिलो-दिमाग में ही उलझे लगे
सूख गए थे जो मचले अरमान
फिर से अब सब्ज़ से होने लगे
दिल-दिमाग़ की जंग तो लेकिन
अब भी वहीं कहीं उलझी लगे

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