Tuesday, March 17, 2015

खैख्वाह नदारद

छोड़ आये थे
वो अपना घर
तलाश में कोई
रोज़गार की
आमदनी इतनी
कि बस गुजर भर
एक आशियाना
सर छुपाने को
बना था किसी तरह
कुछ दे दिला के
वो भी बस
ढहा दिया एक रोज़
देने को कुछ न था
लेने वाले भी
सब्र कहाँ करते
खैख्वाह नदारद थे
अब कौन
चुनाव सिर पर थे!

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