Wednesday, November 2, 2016

मान्यता

सोचा था चुप रहूँ
कितना समझाया
पर मन कब मानता है
कई कोशिशें कीं
हरेक को समझाया
मगर कौन मानता है
जब मन में हों विकार
पारदर्शिता का हो अभाव
कौन किसकी सुनता है
सब का 'मालिक' एक
अपनी उलझन अपने हित
हरेक एक की सुनता है
मन बोला क्यों सुनूं
मैं क्यों सब के रंग रंगूँ
मेरी अपनी मान्यता है

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