तभी हम उजालों की राह ताकते है
रात अब यहाँ अँधेरी नहीं होती हैं
उजले दिन भी घुप्प अँधेरे होते हैं
दिन-रात यहाँ फिक्र की बातें तो हैं
इंसान, इंसान की फिक्र से डरते हैं
दिल अब सब तरफ खो से गए हैं
सीनों में यहाँ पत्थर से धड़कते हैं
दिन के हारे लोग परेशान रहते हैं
रात फिर अपनी क़िस्मत पे रोते हैं
ज़मीन भी कहने से गुरेज़ करती हैं
कि अब भी यहाँ इंसान कहीं रहते हैं
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