Saturday, December 12, 2015

अँधेरे

अब भी अंधेरों से शायद डरते हैं
तभी हम उजालों की राह ताकते है
रात अब यहाँ अँधेरी नहीं होती हैं
उजले दिन भी घुप्प अँधेरे होते हैं
दिन-रात यहाँ फिक्र की बातें तो हैं
इंसान, इंसान की फिक्र से डरते हैं
दिल अब सब तरफ खो से गए हैं
सीनों में यहाँ पत्थर से धड़कते हैं
दिन के हारे लोग परेशान रहते हैं
रात फिर अपनी क़िस्मत पे रोते हैं
ज़मीन भी कहने से गुरेज़ करती हैं
कि अब भी यहाँ इंसान कहीं रहते हैं

No comments: