उम्र के रहते ही ज़िन्दगी को आज़माना चाहता हूँ
बंद दरवाज़ों में सिमटी रात आज तक खामोश है
खामोशियों में उसकी मैं हर अदा देखना चाहता हूँ
चाँद दस्तक तो देता है आज भी दहलीज पर मेरी
लेकिन इरादे क्या हैं उसके ये समझना चाहता हूँ
बेवज़ह भटकते रहे हैं मैं भी और मेरे अरमान भी
अब सुकून का कोई आशियाँ मैं बनाना चाहता हूँ
भागती-फिरती दुनियाँ का मैं एक तलबगार सा
चार पल बस आराम के मैं भी बिताना चाहता हूँ
पंछियों के सुरों में कैसी मिठास ये बिखरी पड़ी है
कोई गीत मीठा सा इधर मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
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