कहीं दूर की सैर
एकदम उलट
दोराहों और चौराहों से
असंख्य गलियों के जाल
कभी सारी परिचित सी
और कभी अनजानी सी
किंकर्तव्यविमूढ़ करती
भटकने की उलझन
और आभास कराती
दिशाहीनता का
और अकस्मात्
मन पूछने लगता है
मैं भटक गया हूँ
या कदाचित
स्वयं भटक गई हैं
ये गलियां
अपने ही जाल में
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