Tuesday, June 7, 2016

आबो-हवा हमारी

बरसों से जब बरस रहा है पानी
अब ही क्यों सूखे की मार पड़ी
हाहाकार मचा तो है पर क्यों
धरती की तुमने न पुकार सुनी
इठलाये फिरते थे जब तुम यूँ
अब ये बादल क्यों न इतरायेंगे
कब तक बद्बख्तों की झोली में
वो अपना जल बरसाते जायेंगे
जब धरा बोझ से तुम भर दोगे
ये घन-घमंड क्या कर पाएंगे
तुम हर लोगे ये छटा प्रकृति की
कल बच्चे को क्या दिखलायेंगे
द्रुम, शिखर, नदी, हरियाली अब
बस चित्र बनी बिकती जाती है
हर तरफ अब आबो-हवा हमारी
पल-छिन दूषित होती जाती है
पहचानो क्या-क्या तुमसे छिन
तुमसे तुम से अब रूठा जाता है
भर लो झोली या भर दो झोली
जो भी तुम्हें समझ अब आता है
रिश्ता प्रकृति से जो निभाओगे
उसको भी तभी निभाना आता है !

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