Saturday, June 27, 2015

मुनाफ़िक़त

कभी बड़ी गर्मी कभी सूखा कभी बेमौसम बारिश होने लगी
ये ज़माने की खता है शायद मौसम की रंगत बदलने लगी

कहीं लाचारी कभी ज़ुल्मो सितम से रियाया है परेशान यहाँ
इस मुल्क़ के हाकिमों को सियासत है बड़ी रास आने लगी

शौक़ से घूमते फिरते हैं बेख़ौफ़ इधर गुनाहों के सब ताजिर
सजा नहीं अब तो गुनहगार की इज़्ज़त है यहाँ बढ़ने लगी

दिन ढले या दिन के उजाले में भी अब ये आलम है यहाँ
खवातीनों पे सितम की आग हर तरफ़ यहाँ बरसने लगी

अब तो लगता है ज़ुल्म के हुक्मरान भी सब सज़दार यहाँ
मुनाफ़िक़त की मुश्तरका कोशिशें शायद यहाँ हैं बढ़ने लगी

(मुनाफ़िक़त = Hypocrisy, मुश्तरका = Joint , सज़दार = Prostrater, ताजिर = trader)



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