ये ज़माने की खता है शायद मौसम की रंगत बदलने लगी
कहीं लाचारी कभी ज़ुल्मो सितम से रियाया है परेशान यहाँ
इस मुल्क़ के हाकिमों को सियासत है बड़ी रास आने लगी
शौक़ से घूमते फिरते हैं बेख़ौफ़ इधर गुनाहों के सब ताजिर
सजा नहीं अब तो गुनहगार की इज़्ज़त है यहाँ बढ़ने लगी
दिन ढले या दिन के उजाले में भी अब ये आलम है यहाँ
खवातीनों पे सितम की आग हर तरफ़ यहाँ बरसने लगी
अब तो लगता है ज़ुल्म के हुक्मरान भी सब सज़दार यहाँ
मुनाफ़िक़त की मुश्तरका कोशिशें शायद यहाँ हैं बढ़ने लगी
(मुनाफ़िक़त = Hypocrisy, मुश्तरका = Joint , सज़दार = Prostrater, ताजिर = trader)
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