उस दिन मैंने खेला था खेल
स्वयं को मृत सा मान कर
स्वतः क्रियाहीन बन कर
परिणाम मुझे चौंका रहा था
सा कुछ सुचारू रूप में चला था
मेरी अपेक्षा के ठीक विपरीत
मेरा अस्तित्व व उपस्थिति
लोग भूल से रहे थे धीरे धीरे
मेरी कहीं कमी नहीं खलती थी
बल्कि दिनचर्या में ही नहीं थी
किसी को मेरी ज़रूरत नहीं थी
तब मैं कतई निराश नहीं था
स्वयं का यह परिचय देख कर
मेरे लिए ही अब मेरा समय
अब मेरे ही पास दीखता था
अब मैं भी नई जिजीविषा से
भरपूर जीना भी चाह रहा था
समय चक्र में फंसा हुआ सा मैं
समय पर विजय पा चुका था
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