Tuesday, October 8, 2013

साक़ी की तमन्ना

ये तो साक़ी की तमन्ना थी कि पी लें हम भी
वरना यूँ जाम-ए-ज़हर पीने में यहाँ रखा क्या है

दिन ढले शाम की इज्ज़त की ख़ातिर पी लेते हैं
वरना इन ज़हर के घूँटों को पीने में रखा क्या है

जाम-ए-महफ़िल से बहलाते हैं हम ज़िन्दगी को
वरना यूँ चार दिन को यहाँ जीने में रखा क्या है

दोस्ती ही कर ली है यहाँ मय के प्यालों से हमने
वरना घुट घुट के यहाँ बस जीने में रखा क्या है

दिल जला कर पिलाये जा साक़ी जाम पर जाम
आग यूँ बस छुपाये अपने सीने में रखा क्या है

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