होगे तुम मधुरस की धार तुम्हारे स्वर में
मैं तो बस रही प्यासी ही हूँ अन्तर्मन तक
तुम सृजनाधार कहो स्वयं को यों सुर में
मैं खोज रही किसी विहग के सुर अब तक
जीवन की गति के पँख न जाने कैसे होंगे
मैं सोच रही कैसी होती होगी गति अब तक
उन गीतों की रागिनी कब आल्हादित कर देगी
है नहीं भान जिन के सुर, लय भी अब तक
उस पर्वत-शिखर के शीश सी ही टीस है मेरी
सब दूर दूर दर्शन से छवि निहारते अब तक
No comments:
Post a Comment