इस शहर में रोता कोई क्यों हर ओर है
कोई पूछे ख़तावार की पहचान ज़रा लेकिन
दिल के अंदर ये ख़तावार क्यों कोई और है
हर लम्हा ज़िन्दगी यूँ भी तो जी नहीं जाती
चार पल जीने में भला कोई ऐतराज़ क्यों है
गर्दिशे वक़्त की हमने यूँ तो परवाह न की
वक़्त को हर वक़्त हमीं से अदावत क्यों है
लोग बहरे भी गूंगे भी हो चले यहाँ अब तो
बहुत कम हैं बचे जिन्हें शिक़ायते शोर से है
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