Sunday, March 2, 2014

ग़लतफ़हमी

नींद रातों की इधर फिर कहीं और ग़ुम हुई
फिर उसी बात पर बस ग़लतफ़हमी हो गई

सुबह से शाम तक की थी बड़ी कोशिश हमने
शाम ढलते-ढलते बस वही शिकायत हो गई

अपनी साफ़गोई भी तो किसी काम की न हुई
उनको इन अल्फ़ाज़ से ही अदावत सी हो गई

रात भी करवटों की तरह ठिकाने बदलती रही
नींद कि उनसे भी हमसे भी दुश्मनी सी हो गई

जेहन के नए पुराने सवालात-ओ-खयालों में
दिल को भी दिमाग़ से यूँ ग़मगीनियां हो गईं

कहते हैं अब वो हमने प्यार से देखा न कभी
नगमा-ए-ग़म की शुरुआत भला कैसे हो गई

फिर वही वादे वही वफ़ा की कसमों से मगर
ज़िन्दगी में फिर से एक बार मोहलत हो गई

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