उलझनें उलझनों में फंसती रहीं
ज़िन्दगी की ख्वाहिशें बढ़ती रहीं
कोशिशों की कोशिशें होती रहीं
वक़्त की भी करवटें बदलती रहीं
आहटें भी बस आहटें करती रहीं
हर ज़गह थे हम मगर थे तुम नहीं
किसकी जानिब कौन है हर कहीं
जानते थे और इल्म भी कोई नहीं
हमकदम हमराह भी थे हर कहीं
रूह को पर चैन तक आया नहीं
No comments:
Post a Comment