Thursday, July 21, 2011

उस्ताद शायर 'अकील नोमानी' जी की ग़ज़ल

महाज़े जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है
किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है

ख़ुशी ग़म से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती
मुसलसल हंसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है

मैं जिन लोगों से खुद को मुख्तलिफ महसूस करता हूँ
मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है

अभी तक नींद से पूरी तरह रिश्ता नहीं टूटा
अभी आँखों को कुछ ख़्वाबों की खातिर सोना पड़ता है

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