एकालाप से करते हुए ये प्रबुद्ध जन
अपने ही प्रयोजन सिद्धि के निमित्त
जन एवं मानस दोनों को बिसराते
जन-मानस के ये तथाकथित सेवक
चुनाव प्रचार के हथकंडों में संलग्न
अपनी ही शोभायात्रा के दर्प में लिप्त
अपने अपने संघर्ष में सब हो व्यस्त
जन को भी जन की व्यथा बिस्म्रित
अब एकाकी युद्ध सा क्या लड़ पाएंगे
स्वयं ही स्वयं को भूल चुके नागरिक
सब अब तो बाजारवाद पर हैं आश्रित
लड़ते से अपनी ही प्रतिद्वंदिता के युद्ध
अब भिन्न प्रकार की सही लेकिन उस
चीनियों की भाँति अफ़ीम की पीनक में
संस्कृति, संस्कार, समाज सब से इतर
फिर से हैं दास मानसिकता के शिक़ार
कुशासन व व्यवस्था में सहमे स्वरों में
इनके भी योगदान कम नहीं हैं शायद
इन्हें ही अपने स्वरों को आवाज़ देनी है
सिर्फ नेपथ्य में न हो इनका ये नैराश्य
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