Saturday, September 3, 2016

यही श्रेयस्कर

भुला नहीं पाया
अब भी जिसे मैं
इतने अरसे बाद
बुला रहा है मुझे वो
अब मेरी यूँ तो शायद
विवशताये नहीं कोई
लौट नहीं पाता हूँ
फिर भी मैं क्यों?
मन से चाहता भी हूँ
शायद, फिर भी मैं
किंकर्तव्यविमूढ़ सा
अनिश्चय में जकड़ा
असुरक्षा की भावना से
सोचता हूँ कैसे रहूँगा
इतने समय बाद, मैं
भौतिक भोग का आदी
यहाँ वहां हो गए हैं
तब के साथी भी सब
बांटूंगा सुख-दुःख किससे
मन ही मन से हार जाता है
दिलासा देकर कहता है
मैं आता-जाता रहूँगा
यही श्रेयस्कर होगा
मेरे लिए शायद !

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