पर्वत प्रदेश में पावस पावस ऋतु थी,
पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार, -
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर फड़का
अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल! -
यों जलद-यान में विचर-विचर था
इंद्र खेलता इंद्रजाल ( सुमित्रानंदन पन्त )
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