Monday, November 19, 2012

अपना साथ काफ़ी है

दिन तो ढलेगा इसका क्या
चाँद की रौशनी ही काफी है
अमावस की रात है तो क्या
जुगनुओं की तो आपाधापी है
रात अगर अँधेरी है तो क्या
सितारों की चमक बाकी है
सफ़र अकेला सही तो क्या
हमसफ़र की तलाश बाकी है
हमसफ़र न हो तो न ही सही
हमारा सफ़र अब भी बाकी है
कोई भी साथी न हो तो क्या
हमारे लिए अपना साथ काफ़ी है
वक़्त या शरीर दगा दे तो क्या
हौसलों का असर तो बाकी है

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