Friday, May 23, 2014

आडम्बर

मिलना चाहती है
जब ये साँझ
हर रोज़ अँधेरे से
तो तुम क्यों
जलाते हो दीप
सुबह के उजाले
होंगे ख़ुदबख़ुद
तो तुम क्यों
ख़ामख़ाँ ही
उज़ाला करते हो
शायद तुम
तलाशते हो
अंधेरों में भी कुछ
तभी शायद करते हो
इतना आडम्बर

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