Saturday, May 24, 2014

समय-गति

शांति के प्रयास में
कोलाहल के स्वर
निरंतर बढ़ते रहे
घटित तो घट चुका
स्वरों के क्रम
फिर भी बढ़ते रहे
सूर्य अस्त हो चुका
बादलों में रँग
फिर भी बदलते रहे
साँप निकल चुका
फिर भी लोग यहाँ
रस्सियों से डरते रहे
स्वर्गवासी हुआ कोई
आलोचनाओं के क्रम
फिर भी चलते रहे
समय-गति रुक गई
जगत के कार्य
फिर भी बढ़ते रहे

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