Sunday, August 24, 2014

बस अकारण ही

रोज़ सुनते हैं
मंदिर की घंटियाँ
गिरजाघरों के शब्द
मस्जिदों से अजान
गुरुद्वारों के पाठ
और भी कई आवाज़ें
कल्याण की ख़ातिर
संसार भर के
बग़ैर अपवाद के
लेकिन धर्म के दम्भ
आँखों को बनाती हैं
हर तरफ़ पारान्ध
धर्म तब द्योतक हैं
निहित स्वार्थ के
निश्चित विवाद के
सम्मोह की मूर्खता के
कल्याण के मायने
सिमट जाते हैं
संकीर्ण मानसिकता
हावी हो जाती है
प्रतिस्पर्धात्मक जगत की
विनाश की कड़ी बनती है
एक निरंतर प्रतिद्वंदिता
बस अकारण ही

1 comment:

janardan said...

अकारण प्रतिद्वंदिता....सच है...