Friday, January 9, 2015

पराकाष्ठा आस्था की

क्या करूँ
इस प्रश्न का
जो बस आता है
मन में मेरे बार-बार
पूछता है मुझसे
क्यों कहते तुम
आस्था के दीवानों से
जरा बता दें वे
क्यों है दुराव
मन का उनके
अपने ही व्यव्हार से
क्यों फ़र्क़ है उनकी
कथनी और करनी में
कहने को सब कहते हैं
सब का ईश्वर एक है
फिर क्यों लाते हैं
ये सारे भेदभाव
धर्म की आड़ में
विकृत समझ से
या फिर कोई खोट है
उनकी समझ में
स्वयं से पूछते क्यों नहीं
क्या है पराकाष्ठा
उनकी आस्था की !

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