Monday, February 2, 2015

प्रशस्त

मैली कुचैली व्यवस्था में यहाँ
स्वतंत्रता के लाभ कुछ को हैं
ये मानवता का अभिशाप है
ज़ुल्म और सामंतवादी प्रथा
आज भी प्रश्रय देती हैं जहाँ
विवेक अविवेक से हार कर
समा जाता है जान बूझकर
गर्त में एक ऐसी खाई के
कभी नहीं भर पाने वाली
उसकी अंधकार की सीरत
जहाँ भूले बिसरे भी कभी
कोई सूरज तक नहीं आता
अंततः एक सतत अंतहीन
धुँधला सा भविष्य उसका
सघन गर्त में समा जाता है
उम्मीद आती-जाती रहती हैं
दिन रात की तरह प्रतिदिन
चंद लोग उम्मेीद जगाते हैं
बाक़ी उम्मीद मिटा प्रशस्त हैं

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