Sunday, October 3, 2010

इंसानियत

मुझे आज एक बार फिर बदस्तूर
इंसानियत पर तरस आ रहा है
भीड़ में ही चलता रहा है मगर
हर शख्स अलग को दौड़ रहा है
किसी के साथ नहीं जाना चाहता
उसके साथ भी वहां कोई नहीं है
हर कोई मौके की तलाश में सा
अव्वल नंबर की दौड़ में भागता है
अकेले दौड़ कर अव्वल ही आएगा
ये जानकर भी मानता नहीं है
उसके साथी कागजों और खातों में
सिर्फ नाम के और अंक ही हैं
उसका समाजशास्त्र और इतिहास
अंकगणित के नंबरों सा ही है
उसका भविष्य भी इसी तरह
रेखागणित के प्रयोग की तरह है
इतने सारे नंबर पा लेने के बाद भी
इंसानियत में बस सिफ़र पाया है!

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