Monday, March 28, 2011

एतवार

बिखरते हुए जज्बातों ने
अब भी थामा हुआ था
उम्मीदों का कस कर दामन
सकुचाते से हरफ अब भी
कुछ जुमले नहीं बन पाए थे
रोज़ किसी खास मौके का
मुतवातर इंतजार करते करते
किसी धुंध में से समाये थे
वक़्त की अपनी रफ़्तार थी
कुछ मयस्सर न होने से
मजबूरियां करीब आ रही थीं
खैरख्वाह किनारा कर बैठे
चेहरे की हँसी काफूर होकर
बस रहगुजर सी हो गई थीं
उसे आज भी था मगर
मंजिल पा लेने का एतवार

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