बिखरते हुए जज्बातों ने
अब भी थामा हुआ था
उम्मीदों का कस कर दामन
सकुचाते से हरफ अब भी
कुछ जुमले नहीं बन पाए थे
रोज़ किसी खास मौके का
मुतवातर इंतजार करते करते
किसी धुंध में से समाये थे
वक़्त की अपनी रफ़्तार थी
कुछ मयस्सर न होने से
मजबूरियां करीब आ रही थीं
खैरख्वाह किनारा कर बैठे
चेहरे की हँसी काफूर होकर
बस रहगुजर सी हो गई थीं
उसे आज भी था मगर
मंजिल पा लेने का एतवार
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