Friday, September 9, 2011

मेहरबान

मेरे मेहरबान मुझे जीने दे सुकून से
अपनी रहमत अब कहीं और कर तू
रात को दिन व दिन को रात न कर
इतनी बड़ी इनायत मुझपे न कर तू
क्यों दिखता है हाहाकार ही सदा अब
मुझे ऐसे उजाले से तो मत डरा तू
मुझे तो बस इस अँधेरे में ही रहने दे
अब कहीं और ये उजाला कर ले तू
या उन अँधेरे के गलियारों में करते
सारे काम गलत बंद करा दे अब तू
उजले वस्त्र पहन करते जो अपराध
उनके कुकर्म उजाले में ले आना तू
फिर चाहे तो जी भर के कर देना
मेरे आस पास भी ख़ूब उजाला तू

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