कितनी सर्द रात थी वो
उस रोज़ सिहरन से
हर कोई सिकुड़ रहा था
गर्म बाँहों में सिमटा फिर भी
कोई शख्स सिसक सा रहा था
अपनी फितरत में परेशान होकर
अपनी किस्मत पर रो रहा था
उसे ज़माने से कोई सरोकार नहीं
लगा ज़माने का बोझ ढो रहा था
अपनी मनोदशा में उसे लगता
हर लम्हा उसके साथ रो रहा था
लेकिन बिना हस्तक्षेप किये ही
उसकी सोच पर समय हँस रहा था
ख़ुशी का लम्हा उसके करीब होकर
इसी पल उससे कहीं दूर जा रहा था
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