Wednesday, July 4, 2012

हस्तक्षेप

कितनी सर्द रात थी वो
उस रोज़ सिहरन से
हर कोई सिकुड़ रहा था
गर्म बाँहों में सिमटा फिर भी
कोई शख्स सिसक सा रहा था
अपनी फितरत में परेशान होकर
अपनी किस्मत पर रो रहा था
उसे ज़माने से कोई सरोकार नहीं
लगा ज़माने का बोझ ढो रहा था
अपनी मनोदशा में उसे लगता
हर लम्हा उसके साथ रो रहा था
लेकिन बिना हस्तक्षेप किये ही
उसकी सोच पर समय हँस रहा था
ख़ुशी का लम्हा उसके करीब होकर
इसी पल उससे कहीं दूर जा रहा था

No comments: