Monday, July 29, 2013

निशाँ-ए-ज़िन्दगी


ज़िन्दगी दिन-ब-दिन बस गुज़र सी गई
जेहन में चन्द सवाल अब भी बाक़ी से हैं

है रहा भी कुछ अपने पास देने को कोई
शिक़ायत सभी की अब भी बाक़ी सी हैं

ज्यों भी गुज़री यहाँ अपनी गुज़र ही गई
क्या करें चन्द साँस अब भी बाक़ी सी हैं

गिन के रुसवाईयाँ यहाँ उम्र कटती गई
दिन तो गुज़रे निशाँ अब भी बाक़ी से हैं

मौत से दोस्ती की अब तो ये रुत आ गई
निशाँ-ए-ज़िन्दगी कुछ अब भी बाक़ी से हैं

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