Tuesday, July 16, 2013

विशिष्ट उपलब्धि


हमें प्रायः विशिष्ट उपलब्धियों की चाह रहती है। लेकिन विशिष्ट उपलब्धि के साथ यह समस्या है कि ये कभी कभी होती हैं और हर बार तो कभी भी नहीं। आपने अपना कार्य और कर्तव्य तो यथासंभव बख़ूबी निभाया किन्तु वांछित स्टार का परिणाम न मिलने पर आपको निराश या हताशा भी हुई।

यहाँ समझने और सोचने की बात यह है कि आप जितना कर सकते थे आपने यथ्शक्ति प्रयास भी किये और अच्छे परिणाम भी मिले। सोचने और होने के बीच का फ़र्क़ आप नहीं समझ पाए। परिणामतः आपके अनावश्यक रूप से स्वयं की उपलब्धि पर ग्लानी हुई और यह सोच बनी की यदि ऐसा या वैसा किया होता तो शायद अपेक्षित परिणाम मिल ही जाता।

अब आपने यहाँ तक तो सोच ही लिया किन्तु ये नहीं सोच पाए कि ऐसा या वैसा वर्तमान व भविष्य के विषय हैं भूतकाल के नहीं। भूत में तो जो हुआ वही सत्य है; इसमें कयास नहीं लगाये जा सकते हैं। भूतकाल के परिप्रेक्ष्य में किन्तु, शायद, यदि, परन्तु आदि प्रश्नों और विवेचना का कोई स्थान नहीं होता। जो चीज़ बदलना सम्भव नहीं है उस पर विचार कर अपने मन में हीन भावना ले आना बेमानी है।

विवेक का प्रयोग कर विशिष्ट का प्रयास तो अवश्य करें किन्तु परिणाम आशामुखी न भी हो तो इसमें कोई बुराई नहीं। अपने स्तर पर यथासम्भव प्रयास भी करे; किन्तु सोचने और होने की प्रक्रिया को पहचानें। जो उपलब्धियां हुईं वो भी नहीं या कम हो सकती थीं? यदि हाँ तो संतोष रखें और नए प्रयास और उत्साह के साथ सुधार के प्रयास करें। व्यर्थ चिंता के विचार और स्वयं पर अविश्वास आपमें नकारात्मक सोच ल सकते हैं। इससे बचें और यथार्थ की समझ बढ़ायें।

आपके प्रयास, जीवट और उपलब्धियों के मार्ग में कई बाधाएँ या अवरोध भी होते हैं; जिनका आकलन या अनुमान लगाना हमेशा सम्भव नहीं। सकारात्मक सोच रखें और अपने प्रयास, अपेक्षा और उपलब्धियों के बीच के सामंजस्य की समझ बढायें। सवेरा रोज होता है लेकिन सूरज हमेशा दिखाई दे ये ज़रूरी नहीं। सवेरे के साथ मिली रौशनी को पहचानें। अँधेरा कितना भी घना हो, रौशनी पर हावी नहीं हो सकता। अपने मन के प्रकाश को भी इसी प्रकार जलाये रखें।

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