Wednesday, October 29, 2014

रिश्ते बिना डोर के

हो जाता हूँ कभी
भ्रमित सा मैं
बदलते परिवेश में
अब लोग यहाँ
नूतनपंथी हैं प्रायः
गाँव के गंवारों से दूर
शहर के संभ्रांत हैं
लोग बस लोग हैं
रिश्तों की डोर
नहीं पकड़ना चाहते
इनके रिश्ते अब
बिना डोर के होते हैं
वाई-फाई की भाँति
दूर से जुड़े हुए से
वो भी मर्ज़ी से ही
चाहा तो ऑन किया
वरना ऑफ़ लाइन
मशीनी युग है
मशीन की तरह हैं
इनके सभी अंदाज़

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