कहना क्यों है?
तुमने जो राह चुनी
विपदा की ओर बढ़े
अब भी न समझ पाए
भटकी इन राहों में
रहना क्यों है?
राही भीड़ का बन
तुमने स्वयं हरा विवेक
जो जहां चला तुम बढ़ चले
मंझधार के प्रवाह में
बहना क्यों है?
भूल गए हो कैसे तुम
नीर-क्षीर के भेद को
सत्य-असत्य के अंतर को
अपने ही हाथों ज़ुल्म
सहना क्यों है?
तुमने जो राह चुनी
विपदा की ओर बढ़े
अब भी न समझ पाए
भटकी इन राहों में
रहना क्यों है?
राही भीड़ का बन
तुमने स्वयं हरा विवेक
जो जहां चला तुम बढ़ चले
मंझधार के प्रवाह में
बहना क्यों है?
भूल गए हो कैसे तुम
नीर-क्षीर के भेद को
सत्य-असत्य के अंतर को
अपने ही हाथों ज़ुल्म
सहना क्यों है?
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