Wednesday, August 31, 2011

दिल के जाँबाज़ों से

क्यों दे रहे हो दस्तक सी इन खुले दरवाज़ों को
क्या हुआ हासिल जो बंद थे उन दरवाज़ों से
कितनी ख़ामोशी है इधर कुछ बेक़रारी भी
कह भी डालो डरते हो क्यों अल्फाजों से
हर लफ्ज़ की भी अपनी एक ख़ामोशी है
क्या हुआ जो गुज़र रहे हैं कई आवाज़ों से
इतनी ज़ल्दी भी क्या है जो मैं ही कुछ कहूँ
मैं भी तो ज़रा समझ लूँ मेरे ही लफ़्ज़ों से
तुम भी ज़रा बहकने तो दो इन ज़ज्बातों को
ज़रा सीखेंगे कुछ तो लफ़्ज़ों के जालसाज़ों से
उम्र गुज़रेगी मगर तुम न कभी समझ पाओगे
कैसे जीतोगे फरेब से तुम दिल के जाँबाज़ों से

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