नज़र के धोखे से खा गए थे हम धोखा
अब संभले तो सब ज़माने में है धोखा
अपनी नज़र और समझ की है बात
हमारी आदत में है शुमार खाना धोखा
वो ख़ुश हो जाते हैं अपने दिए धोखे से
नहीं जानते हम खाते जानकर धोखा
बस इन्हीं आदतों के चलते लगता है
हम देते हैं उन्हें एक क़िस्म का धोखा
मगर फर्क है उनके व हमारे धोखे में
हमारा तो बस अपने ही लिए है धोखा
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