जो लोग खाते थे 'आम' पर
नहीं जानते थे आम आदमी
ज़रूरत अपनी थी तो आम
जब पूरी हुई तो बस खास
उम्र भर उन्हीं के नाम पर
बेचकर ईमान भी खाते रहे
हर मुसीबत पर उनकी जो
मीडिया में बहस करते रहे
उन्हीं के नाम पर सब दावे
पर उन्हीं के लिए न थे आम
ख़ुद के विवेक को समझाते
'आम खाओ मत गिनो पेड़'
अब आया पंचवर्षीय अवसर
चुनाव की खबर ही आम है
अचानक याद आ गया है अब
उन सभी को आम आदमी
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