Wednesday, September 18, 2013

बिडम्बना

समय को कोई नहीं बाँध पाया सुना है
लेकिन हर कोई समय से बंध गया है
समय-चक्र की भी अपनी बिडम्बना है

हर मूक हमेशा वाचाल होना चाहता है
पिता सन्तान के वाचालपन से त्रस्त है
संतान की वाक कौशल की बिडम्बना है

राष्ट्र व समाज समता सरलता चाहते हैं
राजनेता नौकरशाह सब सत्ता चाहते हैं
व्यक्ति की समाज के प्रति बिडम्बना है

न्यायशास्त्री न्याय और कानून चाहते हैं
अँधा कानून न्याय को प्रायः नकारता है
न्यादविदों की अपनी यही बिडम्बना है

साम्राज्यवाद नहीं है पर साम्राज्य चेष्टा है
बड़े राष्ट्रों की सर्वत्र ही बाज़ार पर पकड़ है
छोटे राष्ट्रों की बने रहने की बिडम्बना है

दार्शनिक जीवन और समाज को देखते हैं
वैज्ञानिक परिकल्पना में यथार्थ तलाशते हैं
जीवन के आयामों की अपनी बिडम्बना है

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